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________________ ( शान्तिमुधासिन्धु ) न जाने करे. कुन मला है। इसके वशीभूत हुआ मनुष्य न माताको देखता है, बहिनको देखता है, न बेटीको देखता है, न पिना वा अन्य गुरुजनोंको देखता है । इन सबके रहते हुए भी वह अनेक प्रकारकी कुचेष्टाएं किया करता है, अनेक प्रकारके भंड वचन कहा करता है। वास्तवमें देखा जाय तो, यह कामदेव मनुष्यताको भी खो देता है । इसलिए वह मनुष्य नीच कृत्य करने लगत है । सब लोग उसको धिक्कार दिया करते हैं और ऐसा मनुष्य फिर कभी भी अपना आत्म-कल्याण नहीं कर सकता, इसलिए भव्यजीवोंको इस कामदेवका त्याग कर, आत्मगण चितवन करते रहना चाहिए। जिससे कि मीनही आत्माका कल्याण हो । प्रश्न - साधुसंगेन किं कि भो लभन्ते ये जना वद ? अर्थ-- हे भगवान ! अब कृपाकर यह बतलाइयं कि साधुओंके ममागमसे मनुष्योंको किन-किन गुणोंकी प्राप्ति होती है ? उ. मुष्णाति दूरात्कलुषं व्यथादि पुष्णाति पुण्यं सुखदं क्षमादिम् श्रेयोनुबध्नाति शिवप्रदं च सत्यार्थतत्वं विशदीकरोति ।। भस्मीकरोत्येव भवांकुराणि पूतं स्वराज्यं प्रकटीकरोति । ज्ञात्वा फलं साधुसमागमस्य संगं सुकार्य सुखवं स्वसिद्धये ।। अर्थ- साधुओंका समागम करनेसे सब पाप दूर भाग जाते हैं, मव दुःख दूर भाग जाते हैं, पुण्यकी वृद्धि होती है, सुख देनेवाले क्षमा आदि गुणोंकी वृद्धि होती है, मोक्ष देने वाले कल्याणकी वृद्धि होती है। आत्माका यथार्थ स्वरूप प्रगट हो जाता है, जन्म-मरणरूप संसारके सब अंकूर भस्म हो जाते हैं, आत्माका शुद्धतारूप पवित्र स्वराज्य प्रगट हो जाता है, इस प्रकार साधुओंके समागका फल समझ कर, अपने आत्माकी सिद्धिके लिए, साधुओंका समागम सदाकाल करते रहना चाहिए। __ भावार्थ- साधुओंका समागम करनेसे, उनके दर्शन करनेसे, उनकी सेवा करनेसे तथा उनकी भक्ति करनेसे आत्माके सन्त्र पाप नष्ट हो जाते हैं, अनेक रोग दूर हो जाते हैं, और महापुण्यको प्राप्ति
SR No.090414
Book TitleShantisudha Sindhu
Original Sutra AuthorKunthusagar Maharaj
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages365
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
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