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( शान्तिसुधासिन्धु)
प्रश्न- बदात्र पंचमे काले सम्पति स्यान्मुनिर्न बा ?
अर्थ- हे प्रभो ! अब कृपाकर यह बतलाइये कि अव पंचम कालम मुनि होते है वा नहीं ! उ. अद्यापि धीरो जिन लंगधारी, तत्त्वार्थवेदी भवबंधभेदी ।
निजात्मनिष्ठोऽखिलसंगमुक्तः, शुद्धोस्ति लोकेत्रमुनिःप्रवीरः स्वानन्दमूर्तेश्च यतेहि यस्यांघ्रिस्पर्शमात्रेण शिवप्रदेन । स्वर्मोक्षगामी भवतीति पूतो, भूमण्डलेस्मिन् स्थित भध्यवर्गः ज्ञात्वेति शंका भवदां विहाय, तत्पादसेवां च सदैव कृत्वा तेभ्योऽनदानं विधिना हि दत्त्वा, कुर्वन्तु भव्या सफलं नजन्म ।।
अर्थ- हे वत्स! आज इस कलिकाल पंचमकालमें भी भगवान अरहंतदेवके निग्रंथ लिंगको धारण करनेवाले, आत्मा आदि समस्त तत्त्वोंके यथार्थ स्वरूपको जाननेवाले, बन्धनोंको छिन्न भिन्न करनेवाले, अपनी आत्मामें लीन रहनवाले, समस्त परिग्रहोंसे रहित, अत्यंत शुद्ध और धीर-वीर मनि इस लोक में विद्यमान हैं । वे मनि आत्मजन्य आनंदकी मूर्ति होते हैं, और उनके चरणकमल मोक्ष देनेवाले होते हैं । उन चरण कमलोंका स्पर्शमात्र करनेस इस मंसारमें रहनेवाले समस्न भव्यजीव पवित्र हो जाते हैं, स्वर्गगामी हो जाते हैं. और मोक्षगामी होते हैं । यही समझकर भव्य जीवोंको संसारको बढानेवाली समस्त शंकाओंका त्यागकर, सदाकाल उनके चरण कमलोंकी सेवा करते रहना चाहिये और विधिपूर्वक उनको आहारदान देकर अपना जन्म सफल कर लेना चाहिए।
भावार्थ- यद्यपि यह पंचमकाल पापमय है, कलषतापूर्ण और स्वार्थपूर्ण है, तथापि परम वीतराग निर्मथ मुनि अबभी इस कालमें विहार करते हैं, और आगे पंचम कालके अन्त तक विहार करते रहेंगे। वे मुनि चतुर्थ कालके मुनियोंके समान धीर-वीर होते हैं, समस्त तत्त्वोंके जानकार होते हैं, समस्त परिग्रहोंसे रहित होते हैं, संसारके बंधनोंको और कर्मोके बंधनोंको नष्ट करनेवाले होते हैं, अपने आत्मामें लीन रहते हैं, अत्यन्त शुद्ध होते हैं, और परिग्रह वा उपसर्ग सहन करने में बा बत, उपवास करने में अत्यन्त बलवान् वा धीर-वीर होते हैं । यद्यपि