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(शान्तिसुधासिन्धु )
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इसरेके मर हो जाते , और रात कर्मचारीभी शत्र हो जाते हैं । इमीप्रकार विषयाभिलाषी पुरुष न जाने किन-किन पदार्थोंका सेवन करते हैं और विपरीत योग मिलनेसे मर जाते हैं । मिथ्या अभिमान करने वालोंके छोटे लोकभी नीचा दिखा देते है, अथवा मार देते हैं। कामदेवके वशीभूत हुए उन्मत्त लोग न जाने कहां मारे जाते हैं. कभीकभी तो उनका शरीरतक नहीं मिलता है । इमीप्रकार सबके साथ बैर-विरोध रखनेवाले पुरुषभी शीघ्र मारे जाते हैं, विराद्ध वेष धारण करनेवाले कभी-कभी धोखेमेही मारे जाते है, और अत्यंत तीन ममत्व कारनेवाले कंजूस लोग या तो चोर डाकुओंसे मारे जाते हैं, अथवा किमी कारणसे वे स्वयं मरे जाते हैं । इसलिए ऊपर लिख समस्त कार्योका त्याग कर विचार पूर्वक आगमके अनुकूल सबकाम करने चाहिए जिससे कि अपने आत्माका कल्याण हो । यही भव्यजीवका कर्तव्य है।
प्रश्न – कथं मो क्रियते स्वामिन् वद मे गुणसंग्रहः ?
अर्थ -- हे स्वामिन् ! अब मेरे लिए कृपाकर यह बतलाइए कि गुणोंका संग्रह किसप्रकार किया जाता है ? उ.-- प्रपूर्यले को जल बिन्दुपाताद् यथा समुद्रश्च नवी तडागः । त्यजन गधर्म च भजन स्वधर्म, मृण्हन गुणान् वावगुणांस्त्यजन हि जीवस्तथायं सुगुणेन पूर्णो, भवत्यवश्यं क्रमतः प्रपूज्यः । ज्ञात्वेति मुक्त्वा विषमप्रदोषात, गृण्हन्तु भव्याः सुख दान् गुणान् हि
अर्थ - इस संसारमें जिसप्रकार जलकी एक-एक बूंदसे बडे-बडे समुद्र भर जाते हैं, नदियां भर जाती हैं और बडे-बडे सरोवर भर जाते हैं, उसी प्रकार जब यह जीव अधर्मका त्याग कर देता है, तथा अपने आत्माके स्वभावरूप दयाधर्मको धारण कर लेता है । और अपने समस्त अवगुणोंका त्याग कर देता है, और अपने आत्माके श्रेष्ठ गुणोंको धारण कर लेता है, उस समय यह जीव अवश्य अपने समस्त श्रेष्ठ गणोंसे परिपूर्ण हो जाता है, और फिर यह जीव तीनों लोकोंके द्वारा पुज्य हो जाता है । यही समझकर प्रत्येक भव्यजीवको अपने विषम दोषोंका त्याग कर देना चाहिए और सुम्ब देनेवाले श्रेष्ठ गुणोंको ग्रहण करते रहना चाहिए ।