SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 261
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( शान्तिसुधाांसन्धु ) भावार्थ - गुणोंका संग्रह एक-एक गुणके ग्रहण करनेसे होता है, जो मनुष्य सबसे पहले अवगुणोंका त्याग कर देता है और फिर एकएक गुणको ग्रहण करता जाता है, वह किसी न किसी दिन अवश्य पूर्णगणी हो जाता है । गणोंको ग्रहण करनेके लिए अवगुणोंका त्याग कर देना परमावश्क है । इसके साथ यह बात ध्यानमें रखने योग्य है कि यहांपर गुण शब्दसे आत्माके गुण ग्रहण करने चाहिए। तथा आत्माके गुण और आत्माका धर्म सदा साथ रहनेवाले है । जहां-जहां आत्माका धर्म रहता हैं, वहीं आत्माके गण रहते हैं और जहां-जहां मात्माके गण रहते हैं, वहां-वहां आत्माका धर्म अवश्य रहता है। अतएव गुणोंका संग्रह करनेके लिए अधर्म का त्याग करना और धर्मका ग्रहण करना अनिवार्य है । जो मनुष्य अधर्मका त्याग नहीं कर सकता वह पुरुष अवगणोंका त्यागभी नहीं कर सकता। तथा विना अधर्म और अवगुणोंका त्याग किए धर्म वा गुणोंका संग्रह कभी नहीं हो सकता। इसलिए प्रत्येक भव्यजीवको अधर्म और अवगुणोंका त्याग अवश्य कर देना चाहिय और फिर एक-एक गुणका संग्रह करते रहना चाहिए । जिरा प्रकार एक-एक बूंद बरसते हुए पानीमे नदी, समुद्र परोबर आदि सव भर जाते हैं, उसी प्रकार एक-एक गुण ग्रहण करनेसेही समस्त गुण पूर्ण हो जाते हैं। गणोंको संग्रह करने का सबसे सरल उपाय यही है । ___ प्रश्न - किमर्थं जीवनं स्वामिन् वद मे भुवनेऽधुना? अर्थ – हे स्वामिन् ! अब कृपाकर यह बतलाइये कि इस मंसारमें यह जीवन किसलिए धारण किया जाता है ? उ.-जीयन्ति ये के स्वापरात्मसिद्धय, सदा यतन्ते स्वपरात्मशुद्धध। त एव जीवन्ति यथार्थदृष्टया, तदन्यजीवाश्च धतासुतुल्याः॥ मन्ये मनुष्या अपि राक्षसास्ते, सन्त्यत्र लोके पशवश्च शुद्धाः । ज्ञात्वेति जीवन्तु सदात्मशुद्धय, ततः परेषां सुखशान्तिहेतोः॥ अर्थ -- जो जीव इस संसारमें अपने आत्माकी शुद्धि और सिद्धि करनेके लिए तथा अन्य जीवोंकी शुद्धि और सिद्धि करने के लिए जिवित रहते हैं, वे ही जीव यथार्थ दृष्टिमे जीवित रहते हैं। उनके सिवाय अन्य जो जीव हैं उनको मृतकके समान समझना चाहिए। ऐसे मनुष्योंको हम लोग राक्षसोंके समान समझते है । ऐसे मनुष्योंकी अपेक्षा तो बहुतमे
SR No.090414
Book TitleShantisudha Sindhu
Original Sutra AuthorKunthusagar Maharaj
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages365
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy