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( शान्तिसुधासिन्धु)
आत्माको मोहसे सर्वथा भिन्न कर लेते हैं । उनको परम कृती कहते हैं। जो इन्द्रिय और मनको पूर्ण रूपसे निग्रह करलेते हैं उनको संयमी कहते है, तथा जो ब्रह्मचर्य वा आत्माके शद्ध स्वरूपमें रमण किया करते हैं वे आत्मसुखी वा अनन्तसुखी कहलाते हैं। इसप्रकार जो अलग अलग नाम है वे सब अपने अपने कर्तव्यसे वा गुणोंसे हैं । केवल नाम रखनेसे अभिलाषा रोसे सि त गुनि नहीं हो सकते, अतएव जो अवस्था वा जो पद धारण किया जाय वह यथार्थ कर्तव्य और यथार्थ गुणोंसे परिपूर्ण होना चाहिये, तभी उसकी शोभा है, अन्यथा बिडवनामात्र है। प्रश्न- यत्संगं प्राप्य चात्मा स्यात्स्वर्गापवर्गसाधकः ।
स कोस्ति कीदृशो लोके शनंदो मे गुरो वद ? अर्थ- हे कल्याण करनेवाले गुरो, स्वामिन् ! जिनके समागम करने मात्रसे यह जीव स्वर्ग मोक्षको सिद्ध कर लेता है, वे कौन-कौन है ? और कैसे है। यह अब बतलानेकी कृपा कीजिये ? उत्तर - जिनागमो जिनो देवो जिनधर्मः शिवप्रदः ।
स्याभिर्ग्रन्थगुरुः पूज्यः, स्तुत्यः संसारतारकः ॥ १५ ॥ निर्दोषो निर्मदः श्रेष्ठः, सर्वक्लेशहरो ध्रुवम् ।
तत्संगं प्राप्य चात्मायं प्रयाति शाश्वतं पदम् ॥ ९६ ॥
अर्थ-- भगवान् जिनेन्द्र देव, भगवान् जिनेन्द्रदेवका कहा हुआ आगम, भगवान् जिनेन्द्रदेवका कहा हुआ धर्म, और समस्त परिग्रहसे रहित गुरु, ये चारों पदार्थ इस संसारमें मोक्ष देनेवाले हैं, पूज्य हैं, स्तुति करने योग्य हैं, संसारसे पार कर देनेवाले हैं, समस्त दोषोंसे रहित हैं, मदसे रहित हैं, सर्वोत्तम है और समस्त क्लेशोंको दूर करनेवाले हैं । इन्हीं चारों पदार्थोंका समागम करनेसे यह आत्मा मोक्षरूप शाश्वत पदको प्राप्त हो जाता है।
भावार्थ- जिनके तीर्थंकर नामकर्मका उदय प्राप्त हो गया है, जिन्होंने घातिया कर्मोंका नाश कर केवलज्ञान प्राप्त कर लिया है और इसीलिए जिनके अनंतशान, अनंतदर्शन, अनंतसुख और अनंतवीर्य ये चारों अनंतचतुष्टय प्रगट हो गये हैं, जो अष्ट प्रातिहार्य