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( शान्तिसुधासिन्धु)
सहित, चाँतीस अतिशय सहित समवसरण में विराजमान है और अपनी दिव्यध्वनिके द्वारा धर्मोपदेश देकर अनेक भव्यजीवोंका कल्याण करते है, उनको देव या भगवान जिनेन्द्रदेव कहते हैं। वे भगवान जिनेन्द्रदेव अपनी दिव्यध्वनिके द्वारा जो तत्त्वोंका यथार्थ निरूपण करते है. वा आत्मकल्याणका मार्ग दिखलाते हैं वह सब जिनागम कहलाता है। अथवा उमी दिब्ध ननिक लपदेशको गणधर परमदेब जो अंगपूर्वरूप रचना करते हैं, और रचनाके अनुसार जो आचार्यादिक शास्त्र रचना करते हैं, वह सब जिनागम कहलाता है, तथा उन्ही भगवान जिनेन्द्रदेवने जो अहिंसामय धर्मका स्वरूप कहा है, जिसमें पांचों पापोंका त्याग बतलाया है, गुप्ति और समितियोंका स्वरूप बतलाया है, दश धर्मोका म्वरूप बतलाया है, और तपश्चरण, चारित्र वा ध्यानका स्वरूप बतलाया है तथा जो परंपरा वा साक्षात् मोक्षका कारण है उसको जिनधर्म कहते हैं। उस पूर्णधर्मको धारण करनेवाले जो निग्रंथ साधु हैं, जो विषय कषायोंगे सर्वथा रहित हैं, आरंभ परिग्रहसे सर्वथा रहित हैं और जो ध्यान, अध्ययन वा तपश्चरणमें लगे रहते हैं ऐसे वीतराग साधुओं को वा आचार्य उपाध्यायोंको गुरु कहते हैं। इस संसारमें आत्माका कल्याण और मोक्षकी प्राति इन्हींसे होती है । संसारमें ये ही तरणतारण हैं। जन्ममरणरूप संसारके समस्त क्लेशोंको दूर करनेवाले हैं, और द्वेषादिक समस्त दोषोंसे रहित हैं और सर्व श्रेष्ठ हैं, इसलिए हे आत्मन् ! तु इन्हींका शरण ग्रहणकर, इन्हींकी सेवा वा पूजा कर, इन्हींका स्मरण कर, जप कर और ध्यान कर । ऐसा करनेसे ही मोक्षकी प्राप्ति होगी।
प्रश्न संवरः निर्जरा मोक्षः कस्य जीवस्य जायते ?
अर्थ- हे स्वामिन् ! अब कृपाकर यह बतलाइये कि संवर निर्जरा और मोक्ष किस जीवको प्राप्त होते हैं ? उत्तर - त्यक्त्वाऽशुभं व्यथामूलं संसारचक्रभूलकान् ।
मिथ्यात्वद्वेषरागादिभावकर्मप्रपंचतः ॥ ९७ ।। वा ज्ञानावरणाद्यष्टकर्मणो मोक्षरोधिनः। सवा भिन्नोस्मि देहादि नोकर्मजालतो ध्रुवम् ।। ९८॥