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( शान्तिसुधासिन्धु )
एवं हिं चिन्तयन् धीरस्तिष्टति कामदे शुभे । चिदानन्दपवं शुद्धं यावन्न लभते भुवि ॥ ९९ ॥ तत्त्वतस्तस्य जीवस्य संवरो निर्जरा तथा । सर्वकर्मविनिर्मुक्तो मोक्षोपि सहजायते ॥ १० ॥
अर्थ- जो महापुरुष सबसे पहले समस्त दुःखोंके कारण ऐसे अशुभ परिणामोंका वा अशुभ कार्योंका त्याग कर देता है । तदनन्तर जो धीरवीर यह चितवन करता है कि मैं इस संसार चक्रके मूलकारण ऐसे मिथ्यात्व द्वेष, राग, आदि भावकौके समूहसे सर्वथा भिन्न हूँ, मोक्षप्राप्तिको रोकनेवाले ज्ञानावरण आदि आठों कर्मोसे भिन्न है और शरीर आदि नोकमोंके समूहसे सर्वथा भिन्न हुँ । इस प्रकार चितवन करता हुआ जो धीर-वीर पुरुष जब तक शुद्ध चिदानन्द स्वरूप मोक्षपद प्राप्त न हो जाय, तब तक समस्त इच्छाओंको पूर्ण करनेबाले शुभ वा शुद्ध परिणामोंमें ठहरता है उसी महापुरुके यथार्थ रीतिसे संवर. होता है, यथार्थ रीतिसे निर्जरा होती है, और अन्त में समस्त कर्मोंसे रहित मोक्षपद प्राप्त हो जाता है।
भावार्थ-- मिथ्यात्व, अव्रत, कषाय, योग, प्रमाद आदि सब कर्मों के आनेके कारण हैं। कर्मोके आनेको आस्रव कहते हैं और आस्रवके रोकनेको संवर कहते हैं । यह संवर गुप्तियोंके पालन करनेसे, समितियोंके पालन करनेसे, दस धमोंके पालन करनेसे, बारह अनुप्रेक्षाओंका चितवन करनेस, बाईस परिषहीको जीतनेसे और चारित्रको पालन करनेसे होता है । जो पुरुष मिथ्यात्व, अवत, कषाय, प्रमाद और योगका सर्वथा त्याग कर देता है और गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा परीषहजय और नारित्रको धारण करता है उसके संवर अवश्य होता है । संवर होनेपर जो कर्मोका नाश होता रहता है उसको निर्जरा कहते हैं । यह निर्जरा तपश्चरणसे होती है। गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा आदिके साथ-साथ जो तपश्चरण किया जाता है, उससे संवरके साथसाथ निर्जरा होती है । तदनन्तर ध्यानके द्वारा जो शेष समस्त कर्म नष्ट हो जाते हैं और आत्माका शुद्ध स्वरूप प्रकट होकर यह आत्मा सिद्ध अवस्थामें जा विराजमान हो जाता है उसको मोक्ष