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( शान्तिसुधासिन्धु )
यथार्थशान्त्यै परियय॑ते हि निजात्मबाह्यः सकलः पदार्थः । यथा सुरेन्द्रश्च जिनार्चनार्थ प्रमुच्यते स्वर्गसुखं च सर्वम् । __अर्थ- भगवान् जिनेन्द्रदेवकी पूजा करनेके लिए स्वर्गका इन्द्र जिसप्रकार स्वर्गके समस्त सुखोंका त्याग कर देता है। उसीप्रकार अपने आत्मामें परम शांति धारण करनेके लिए इस संसारके कुदेव, कुगुरु, कुमार्ग, कुतीर्थ, संसारको बहानेवाले शास्त्र, तंभ रात्र विषम निमार आदि सबका त्याग कर दिया जाता है, तथा परम शांतिको धारण करने के लिएही अपने आत्मासे भिन्न अन्य समस्त पदार्थों का त्याग किया जाता है ।
भावार्थ- जो देव होकरभी अपने साथ स्त्री रखते हों, अस्त्रशस्त्र रखते हों, खाते हों, पीते हों, युद्ध करते हों, वा समस्त दोषोंसे परिपूर्ण हों, उनको कुदेव कहते हैं । जो परिग्रह रखते हों, जिनके हृदयसे काम, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, मद, आदि विकार दूर न हुए हो, जिनको विषयोंकी लालसा लगी हो, जो रोटी-पानी, खेती, बाडी करते हों, ऐसे मिथ्या साधुओंको गरु कहते हैं। जो मोक्षका मार्ग रत्नत्रयसे भिन्न है, आत्मस्वरूपसे भिन्न है, वह सब कुमार्ग कहलाता है । जहांपर यथार्थ देव वा गरुके चरणकमल विराजमान होते हैं, उसको तीर्थ कहते हैं, ऐसे तीर्थोसे भिन्न जो तीर्थ कहलाते हैं, उन सबको कूतीर्थ कहते हैं। इसीप्रकार जो शास्त्र भगवान् जिनेंद्रदेवके कहे हुए नहीं है, जिनमें हिंसाका निरूपण हो, जिनमें मद्य, मांस, मधुके सेवन करनेका निरूपण हो, वा जिनमें सातों व्यसन सेवन करने का निरूपण हो, ऐसे शास्त्रोंको कूशास्त्र कहते हैं । ये कूदेव, कूगुरु, कुशास्त्र आदि सब संसारमें डुबोनेवाले हैं, और नरक-निगोदादिकके महादुःख देनेवाले है । इसीलिए इनकी सेवा, पूजा करनेवालाभी महादुःखी होता है, और अपने आत्माका अहित करता है। इसीप्रकार धन, वुद्धि आदिके लिए जो मंत्र, तंत्र, किए जाते है, वा दूसरोंका बुरा चितवन किया जाता है। वा अनेक प्रकारके संकल्प-विकल्प किए जाते है, वे भी सब जन्ममरणरूप संसारको बढानेवाले है। इसलिए अपने आत्माको वह सब दुःख न हो, अपने आत्मामें परमशांति प्राप्त हो, इसके लिए इन सबका त्याग किया जाता है । इनके सिवायभी अपने आत्मासे भिन्न जितने पदार्थ है, वा कषायादिक विकार है, उन सबका अपने आत्मामें परम शांति प्राप्त