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( शान्तिसुधासिन्धु)
ध्यवसायस्थानोंसे एक कषायाध्यवसायस्थान होता है । इसप्रकार जब असंख्यातलोकपरिमाण कषायाध्यवसायस्थान हो जाते हैं, तब एक जघन्य स्थितिस्थान होता है । यह जघन्यस्थितिस्थान उस पंचेन्द्रिय जीवका वहीं अंतःकोडा-कोडी समझना चाहिए । इस प्रकार जब अंत:कोडा-कोडीसागरस्थितिकेयोग्य कषायाध्यवसायस्थान पूर्ण हो जाते हैं, तब फिर एक समय अधिक अंतःकोडा-कोडी सागरकी स्थितिक योग्य कषायाध्यबसायस्थान पूर्ण हो जाते हैं, तब फिर एक समय अधिक अंत:कोडा-कोडी सागरकी स्थितिके योग्य कषायाध्यवसायस्थान, अनुभागाध्यबसायस्थान और योगस्थान लेने चाहिए । तदनंतर दो समय अधिक अंत:कोडा-कोडी सागरकी स्थिति के योग्य कषायाध्यवसायस्थान, अनुभागाध्यवसायस्थान और योगाध्यवसायस्थान लेने चाहिए। इसप्रकार मलप्रकृति तथा उत्तरप्रकतियोंकी जघन्यस्थितिमे लेकर उत्कृष्ट स्थितितकके योग्य सम्पूर्ण कषायाध्यवसायस्थान, अनुभागाध्यवसायस्थान और योगाध्यवसायस्थानरूप आत्माके परिमाणपूर्ण हो जानेपर एक भावपरिवर्तन होता है।
द्रव्य परिवर्तनका काल अनन्तकाल है। उससे अनन्त गना क्षेत्रापरिवर्तनका काल है । उसमे अनन्त गुणा भवपरिवर्तनका काल है, और उससे अनन्त गुणा भाषपरिवर्तनका काल है । इस जीवने अब तक ऐसे अनन्तपरिवर्तन किए है । इनके जानने का मख्य उद्देश, इनको जान कर संसारसे भयभीत होना, और संसार, शरीर भोगोंसे विरक्त होकर अपने आत्मामें परम शांति धारण कर लेना है, तथा आत्माका कल्याण कर लेना है। जो पुरुष इनका स्वरूप जानकरभी संसारसे विरक्त नहीं होते, और आत्मामें परम शांति धारण नहीं करते, उनका वह जान सर्वथा व्यर्थ समझना चाहिए । अतएव प्रत्येक भव्यजीवको इनका स्वरूप जानकर अपने आत्माका कल्याण कर लेना चाहिए ।
प्रश्न-- किमर्थं त्यज्यते बुहि कुदेवागमपूजकः ? ।
अर्थ- हे भगवन् ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि कुदेव, कुशास्त्र कुगुरु, वा इनके पूजकोंका त्याग किस लिए किया जाता है ? उ.-लोके कुदेवः कुगुरुः कुमार्गः तथा कुतीयं भवदं कुशास्त्रम् । तंत्राविमंत्री विषमो विचारः तत्सेवको वाथ विकल्पकेतुः ॥