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( शान्तिसुधासिन्धु )
करनेके लिएही त्याग किया जाता है । स्वर्गका इंद्र जिसप्रकार भगवान् जिनेंद्रदेवकी पूजा कर अपने आत्मामें परम शांती प्राप्त करता है, और उसके लिए स्वर्गादिककं सब सुख छोडनेकी लालसा रखता है, उमी प्रकार भव्यजीवोंकामा जाने आत्मा परमशांति प्राप्त करनेके लिए कूदेवादिकका सर्वथा त्याग कर देना चाहिए।
प्रश्न-- बिचार्यब गुरो वृत्तिः किमर्थं क्रियते वद ?
अर्थ- हे स्वामिन् ! अब कृपा कर यह बतलाए कि अपनो सब प्रवृत्तियां विचारपूर्वकही क्यों करनी चाहिए। उ.-स्थिती गतौ वाचि कृतौ विनोदे ग्रामे वने रायविधौ कलापाम्
भोगे विलासे शयनासनादौ साधौ खले लोकविविधाने ।।
पूर्वोक्तकार्य सुखदा प्रवृत्तिः कार्या विचायव तथान्यकार्ये । .. भवेद् यतः सर्वतनौ स्वशान्तिर्यथैव वृष्टया सकलेपि विश्वे ।।
अर्थ- वृष्टि होनेसे जिसप्रकार समस्त संसारमें शांति हो जाती है, उसी प्रकार चलने में, ठहरनेमें, कहने में, किसीभी कार्यके करने में विनोदमें, गांवमें, वनमें राज्य करनेमें, कला सीखने, भोगोंमें, विलासोमें, सोने में, बैठने में, दुष्टमें, सज्जनमें, किसीभी लौकिक विधिके करनेमें वा अन्य समस्त कार्यो में अपनी सुख देनेवाली प्रवृत्ति विचार पूर्वकही करनी चाहिए । विचारपूर्वक समस्त कार्य करनेसे इस संसारमें समस्त जीवोंको शांतिकी प्राप्ति होती है।
भावार्थ- कहीं भी ठहरना हो तो विचार पूर्वकही ठहरना चाहिए, ठहरते समय यह विचार अवश्य कर लेना चाहिए कि यहां ठहरने में सम्यग्दर्शन वा सम्यकचारित्रका घात तो नहीं होता है, अथवा किसी धर्मका पात तो नहीं होता है। यहां ठहरने में देवदर्शन वा गुरूदर्शन होते हैं वा नहीं । जहांपर रत्नत्रयका घात होता हो, वा देवदर्शनादिक न हों, वहां कभी नहीं ठहरना चाहिए । गमन करते समय सब प्रकारके भयोंका विचार कर लेना चाहिए । तथा मार्ग-कुमार्गका विचार कर लेना चाहिए । वचनके कहनेमें वा किसी कामके करनेमें यह विचार अवश्य कर लेना चाहिए कि इस बात के कहने में, वा इस