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________________ ( शान्तिसुधासिन्धु) काम करने में, किसीको दुःख तो नहीं पहुंचता है। अथवा किसीकी हानि तो नहीं होती है, अथवा किसी धर्मका घात तो नहीं होता है । जिसमें किसीकी हानि हो वा धर्मका घात हो, ऐसे वचन कमी नहीं कहने चाहिए । अथवा ऐसे कार्य कभी नहीं करने चाहिए । इसीप्रकार विनोद वा श्रीडा करने मेंभी किसी जीवकी हानि, वा किसी जीवका घात वा धर्मके धातका विचार अवश्य कर लेना चाहिए । विनोदके लिए शस्त्र चलाकर जीवोंका घात कभी नहीं करना चाहिए, अथवा किसी जीवको दुःख पहुंचानेवाला विनोद कभी नहीं करना चाहिए। किसी गांव वा बनमें जाने के पहले धर्म-अधर्मका विचार अवश्य कर लेना चाहिए । राज्य करनमें बहुत लम्बे विचारको आवश्यकता होती है। इसीप्रकार कलाके सीखनेमेभी धर्म-अधर्मका विचार करना चाहिए । भोग-बिलासोंको भी बहुत सोच समझकर करना चाहिए | और धर्मअधर्म का विचार अवश्य रखना चाहिए । सोने में, बैठने में आपत्तियोंका विचार करना चाहिए, दुर्जन-सज्जनोंमें उनकी संगतिक फलका विचार करना चाहिए, और समस्त लोकिक क्रियाओं में धम-अधर्मका, अपने पदस्थका और शास्त्रोंके आदेशका अवश्य विचार करना चाहिए । इसके सिवाय अन्य जितने कार्य है, उनके करने में धर्म-अधर्मका विचार करना चाहिए। इसप्रकार विचारपूर्वक इन प्रवृत्तियोंके करने संसारके समस्त जीवोंको शांतिकी प्राप्ति होती है। प्रश्न- स्तुतेस्तुष्यति को जन्तुः कुप्यते निन्दया कथम् ? अर्थ- हे भगवन् ! अब कृपा कर यह बतलाइए कि कौन मनुष्य स्तुतिसे संतुष्ट होता है, और निंदा करनेसे कौन क्रोध करता है, तथा क्यों करता है ? उ.-स्यातादिपूजाविनयप्रणामान वर्द्धते स्वात्मसुखं स्वशान्तिः । हानिर्नलाभः खलु निन्दया मे स्वसौख्यभोक्तास्मि सदा सुखीच स्वसौख्यशून्यो विनयप्रणामः काको यथा तुष्यति मांसपिण्डः । ततो ह्यशान्ति लभते प्रमुढोज्ञानीति शांति ह्यचला स्वभावात्।। __ अर्थ- जो पुरुष अपने आत्मास्वरूपको जानता है, वह यही विचार करता है कि मेरी प्रसिद्धि होनसे पूजा होनेसे, मेरी विनय करनेसे और
SR No.090414
Book TitleShantisudha Sindhu
Original Sutra AuthorKunthusagar Maharaj
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages365
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
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