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________________ ( शान्तिसुधा सिन्धु ) मुझे प्रणाम करने से मेरे आत्माका सुख नहीं बढता, तथा आत्म शांति भी नहीं बढती । इसीप्रकार मेरी निंदा करनेसे, न तो मेरी हानि होती है, और न कोई लाभ होता है । मेरा आत्मा अपने आत्मजन्य आनंदको भोगने वाला है, और सदा सुखी रहनेवाला है, परंतु जो पुरुष अपने आत्मजन्य सुखका स्वाद नहीं जानता, वह पुरुष जिस प्रकार कौवा मांस पिंडसे प्रसन्न और सन्तुष्ट होता हैं, उसी प्रकार वह भी विनय और प्रणाम करते प्रसौतुक होता है तथा भयें वह अज्ञानी महा अशांतिको प्राप्त होता है, परन्तु जो पुरुष आत्मस्वरूपको जानता है, वह अपने स्वभावसेही अनंत शांतिको प्राप्त होता है । ३४१ भावार्थ - अपने आत्माके यथार्थ स्वरूपको जाननेवाला ज्ञानीपुरुष सदाकाल अपने आत्मामें लीन रहता है । और आत्मजन्य आनंदका अनुभव करता है । वह मान-अपमानका कोई विचार नहीं करता । न तो अपना आदर-सत्कार होनेपर अपना कोई लाभ समझता हूं, और न अपनी निंदा होनेपर अपनी कोई हानि समझता है। वह निदा स्तृति दोनों में समता धारण कर परमशांतिका अनुभव करता है, परंतु जो पुरुष आत्मज्ञानसे रहित है, वह अपने आदर-सत्कारसे प्रसन्न होता है, और अपनी निदासे दुःखी होता है । इसप्रकार वह पुरुष हर्ष-विषाद करता हुआ महा अशांतिको प्राप्त होता है। इसलिए ज्ञानी भव्यजीवोंको अपने आत्माका यथार्थ स्वरूप समझकर निंदा वा स्तुति किसी प्रकारका हर्ष - विषाद नहीं करना चाहिए, और समता धारणकर परम शांति प्राप्त कर लेनी चाहिए । यही आत्मकल्याणका मुख्य उपाय है। प्रश्न- अर्हत्सिद्धादिशास्त्राणां नतिप्रयोजनं वद । अर्थ- हे स्वामिन् ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, शास्त्र आदिको नमस्कार क्यों किया जाता है ? उत्तर- अर्हत्सिद्धादिशास्त्रेभ्यः सूरिपाठकसाधवे । एकादशाविश्राद्धेभ्यो यथायोग्या नतिः स्तुतिः ॥ ४९१ ॥ कार्या भक्त्या सदा शान्त्यं सम्यक्त्वव्रतशालिभिः । यथा श्रेणिकभूपेन संघमिने पुरा कृता ।। ४९२ ॥
SR No.090414
Book TitleShantisudha Sindhu
Original Sutra AuthorKunthusagar Maharaj
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages365
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
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