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( शान्तिसुधासिन्धु )
___ अर्थ-भगवान महावीर स्वामीके समयमें जिसप्रकार राजा श्रेणीक भक्तिपूर्वक समस्त संयमियोंकी स्तुति करते थे, सबके लिए नमस्कार करते थे, और इसप्रकार उनकी भक्ति कर अपने आत्मामें परम शांति प्राप्त करते थे, उसीधकार सम्यग्दर्शन और व्रतोंको पालन करनेवाले भव्य श्रावकोंको आत्मामें परमशांति नाप्त करनेके लिए भक्तिपूर्वक यथायोग्य रीतिसे अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, शास्त्र, क्षुल्लक, ऐलक आदिके लिए नमस्कार करना चाहिए, उनकी स्तुति करनी चाहिए, तथा उनकी सेवा, भक्ति-वैयावृत्य आदि सब कुछ करना चाहिए।
भावार्थ- अरहंत सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, और साधु ये पंचपरमेष्ठी कहलाते है । इस संसारमें ये पंचपरमेष्ठि सर्वोत्कृष्ठ माने जाते हैं । ये पांचों परमेष्ठीही इस संसारम मंगलस्वरूप हैं. और यही समस्त जीवोंके लिए शरण हैं । इस संसारमें जीवोंका कल्याण करनेवाले और मोक्ष प्रदान करनेवाले ये ही पंचपरमेष्ठी हैं। इन पंचपरमेष्ठियोंके गणोंका स्मरण करना, उनको नमस्कार करना, उनकी स्तुति करना. उनकी पूजा करना, आदि सब कार्य महापुण्य उत्पन्न करनेवाले हैं, तथा आत्माको पवित्र करनेवाले हैं । जो पुरुष इनके गुणों में प्रेम रखते हैं वे इनके आदेश और उपदेशकोभी अवश्य मानते हैं, और पंचपरमेष्ठिका आदेश वा उपदेश समस्त जीवोंका कल्याण करता हुआ मोक्ष प्रदान करानेवाला होता है । इसीलिए इनकी सेवा पूजा करनेवाले भव्यजीव इनकी पूजा स्तुति करके वा गुणस्मरण करके, उन गुणोंको धारण कर उन्हींके समान हो जाते हैं। इसीप्रकार भगवन् अरहंतदेवके कहे हुए शास्त्रोंकी भक्ति-स्तुति करनेवाला पुरुषभी उनकी आज्ञाको मानता हुआ तथा उनकी आज्ञानुसार अपनी प्रवृत्ति करता हुआ, अपना आत्मकल्याण कर लेता है। इस प्रकार देव, शास्त्र, गरुकी भक्ति, सेवा, पूजा स्तुति करनेवाले पुरुष अपने आत्माका काल्याण करते हुए अपने आत्मामें परम शांति प्राप्त कर लेते हैं। राजा श्रेणिकनेभी ऐसाही किया था,
और इन्हीं पंचपरमेष्ठीकी भक्ति वा स्तुतिके कारण राजा श्रणिकको तीर्थंकर नामकर्मका बंध हुआ था। इन पंचपरमेष्ठीयोंकी स्तुति आदिका अपार माहात्म्य है, इन पंच परमेष्ठीयोंकी स्तुति बा नमस्कारकी