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( शान्तिसुधासिन्धु )
तो बातही अलग है, जो पुरुष इनके नामकाभी स्मरण करते हैं, दा इनके नामका जप करते हैं, वे पुरुषभी इस संसारसे पार हो जाते हैं । राजा श्रेणिककेही समय में एक मेंढक कमलकी एक कली लेकर भगवान महावीर स्वामीकी पूजा करनेके लिए चला था, परंतु मार्गही हाथीके पैर तले दबकर मर गया था, और उसी समय वह मेंढक बड़ी भारी ऋद्धिको धारण करनेवाला देव हुआ था। वह देव उत्पन्न होतही भगवान महावीर स्वामीके समवसरणमें आया था, और उसने अपनी दैदीप्यमान प्रभासे समवसरणमें विराजमान समस्त भव्यजीवोंको आश्चर्यमें डाल दिया था, और सबके लिए उस पूजाका अपार माहात्म्य प्रगट कर दिखाया था। अतएव समस्त भव्यजीवोंको पंचपरमेष्टीकी पूजा, स्तुति, भक्ति आदि प्रतिदिन करना चाहिए, प्रतिदिन उनको नमस्कार करना चाहिए, प्रतिदिन उनका जप करना चाहिए, और प्रतिदिन उनके गुणोंका स्मरण करना चाहिए। आत्मकल्याणका यह सबसे अच्छा उपाय है।
प्रश्न - ज्ञानिभिः कर्मबद्धश्च किमर्थ कर्मचिन्तनम् ।
अर्थ- हे भगवन् ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि कर्मोसे बंधे हुए ज्ञानी पुरुष अपने कर्मोका चितवन किसलिए करते हैं ? उत्तर-जानिभिः कर्मबद्धश्च द्रव्यभावादिकर्मणः ।
स्वरूपं चिन्त्यते शान्त्य साधुनेव निजात्मनः ॥४९३ ॥
अर्थ- परम शांति प्राप्त करने के लिए जिसप्रकार मुनिराज अपने आत्माके शुद्ध स्वरूपका चितवन करते हैं, उसीप्रकार कर्मोंसे बंधे हुए ज्ञानी पुरुषभी अपने आत्मामें शांति प्राप्त करनेके लिए द्रव्यकर्म, भावकर्म, वा नोकर्मके स्वरूपका चितवन करते हैं।
भावार्थ-- ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय ये आठ कर्म, तथा इसके एकसो अडतालीस उत्तरभेद सब द्रव्यकर्म कहलाते हैं, तथा जिनसे ये कर्म वंधते हैं ऐसे राग, द्वेष, कषाय आदिको भावकर्म कहते हैं, और औदारिक, वक्रियक, आहारक इन तीन शरीर और छह पर्याप्तिके योग्य पुद्गलवर्गणाओंको नोकम कहते हैं। इन्ही कर्मो के कारण यह जीव अनादिकालसे बंब रहा है,