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( शान्तिसुधसिन्धु )
और नरक - निगोद आदिके महादु:ख भोग रहा है । राग-द्वेषादिके कारण नवीन नवीन कर्मीका बंध करता है, उनके उदय होनेपर दुःख भोगता है । राग-द्वेष, वा कषायोंका उत्पन्न करना इस जीवके हाथ में है । यह जीव कषायोंको उत्पन्नभी कर सकता है, और कषायोंको
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कमी सकता है । कषायोंको उत्पन्न करने से यह जीव कर्मोंसे बंधता है, और कषायों के रोकने से कमसे छूटता है। इसलिए प्रत्येक भव्य - जीवको इन कमके स्वरूपका चितवन करके कषायों को रोकने का प्रयत्न करके, अपने आत्माको सुखी बनाना चाहिए, जिसप्रकार मुनिलोग अपने आत्माका चितवन करके समस्त कर्मो को नष्ट करके मोक्ष प्राप्त कर लेते है, उसीप्रकार भव्य श्रावकों को कर्मो का दुःखदायी स्वरूप चितवन करके उनको नष्ट करनेका प्रयत्न करना चाहिए। कषायों को रोककर आते हुए नवीन कर्मोका संबर करना चाहिए, और फिर सुख-दुःखमें समता धारण कर संचित कर्मोंको नष्ट कर देना चाहिए। यही कर्मो के स्वरूपके चितवन करनेका फल है ।
प्रश्न- कथं युद्धं भवे- पृथ्व्यां कदा च तत्प्रशाम्यति ?
अर्थ- हे प्रभो ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि इस पृथ्वीपर युद्ध क्यों होता है, और वह कब शांत होता है।
उ.- श्रीराज्यलक्ष्म्याश्चपलप्रकृत्याः समागमार्थं च जना यतन्ते । तावद्धि युद्धं विषमं भवेत्को तद्ोधनार्थं खलु तत्प्रमोहम् ॥ ज्ञात्वेति मुक्त्वा सततं यतन्तां स्वराज्यलक्ष्म्या ह्यचलप्रकृत्या समागमार्थं हि यथा यतीन्द्राः सत्यार्थज्ञान्तेर्मुनिवर्गमातुः ॥
अर्थ - इस संसार में जबतक अत्यन्त चंचल स्वभावको धारण करनेवाली राजलक्ष्मीको प्राप्त करनेके लिए, ये जीव प्रयत्न करते रहते हैं, तबतक इस संसार में विषय वा भयंकर युद्ध होता रहता है, यह समझकर उस युद्धको रोकनेके लिए उस राज्य के मोहका सर्वथा त्याग कर देना चाहिए, और जिसप्रकार मुनिराज अचल वा निश्चल स्वभाव वारण करनेवाली स्वराज्यलक्ष्मीको वा मोक्षलक्ष्मीको प्राप्त करनेके लिए प्रयत्न करते रहते हैं, उसीप्रकार समस्त मुनियोंकी माता समान यथार्थ शांतिको प्राप्त करनेके लिए सदाकाल प्रयत्न करते रहना चाहिए ।