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( शान्तिसुधासिन्धु )
भावार्थ- युद्धका कारण राज्यकी लालसा है। इन संसारी जीवोंकी तीन लालसाएं जब तक शांत नहीं होती, तबतक युद्धभी कभी नहीं रुक सकत: । राज्यका लालसा राजा-राजाओंमें युद्ध कराती है, धनकी लालसा धनिकोंमें युद्ध कराती है, पथ्बीकी लालसा पश्चीके स्वामियोंमें युद्ध कराती है, अपनी ख्याति की लालसा विद्वानोंमें युद्ध कराती है, और परस्परकी मत्सरता परस्पर में युद्ध कराती है, वर्तमान समयमें अनेक प्रकारकी लालसाएं बढ जानेके कारण संसारभरम अनेक प्रकार के युद्ध हो रहे हैं। और जब तक लालसाएं शांत नहीं होती तब तक युद्ध होते रहेंगे । इन समस्त युद्धोंको रोकने वा शांत करनेका एकमात्र उपाय मोहका त्याग कर देना है। लालसाएं मोहमेही उत्पन्न होती है । मोहका त्याग कर देनेसे समस्न लालसाएं छूट जाती हैं, और लासाओंके छूट जानेसे युद्ध करना समाप्त होता है ।।
यहांपर एक बात और समझलेनी चाहिए. इस संसारमं जितने यद्ध होते हैं, वे सब दो व्यक्तियों में वा दो पदार्थों में होने हैं। जीव-कमका संबंध जो अनादिकालसे चला आ रहा है, उन दोनों भी युद्ध होता रहता है। कर्म आत्माको दबाना चाहते हैं, और आत्मा कर्मोको नष्ट करना चाहता है । जब यह आत्मा उन कर्मोका, वा कर्मोंके फलोंका मोह छोड़ देता है, और कर्मोके फलोंसे प्राप्त होनेवाली समस्त विभतिका मोह छोड देता है, तब यह आत्मा अपने आत्माको उन समस्त विभूतियोंसे भिन्न करनेका प्रयत्न करता है, इसके लिए वह कषायोंका त्याग करता है, और आत्माके शुद्ध स्वरूपका चितवन कर, उन कर्मोको नष्ट करनेसे चिदानंदस्वरूप अकेला आत्मा रह जाता है, इसीको मोक्षकी प्राप्ती कहते हैं । इस प्रकार जब यह आत्मा मोक्ष प्राप्त कर लेता है, और सर्वथा शुद्ध एक चैतन्यस्वरूप आत्मा रह जाता है, उस समय अकेला होने के कारण सब प्रकारके युद्धसे अलग हो जाता है। युद्ध करने में सर्वथा संक्लेश परिणाम होते हैं, परंतु युद्धसे अलग हो जानेपर अनंत शांति प्राप्त होती है । अतएव समस्त भव्यजीवोंको अपने मोहका त्याग कर, सब प्रकारके युद्धका त्याग कर देना चाहिए, और मुनिराज जिस प्रकार मोहका त्याग कर, मोक्ष प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करते हैं, उसी प्रकार परम शांतिको प्राप्त करनेका प्रयत्ल करना चाहिए । यह