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________________ . ( शान्तिसुधा सिन्धु ) प्रश्नः - स्वात्मस्वरूपं कथय प्रभो में प्राप्नोति जीवो विधिना हि केन । 1 अर्थ- हे प्रभो ! अब मेरे लिये अपने आत्माका स्वरूप कहिये तथा वह अपने आत्माका स्वरूप किस प्रकार प्राप्त हो सकता है गां भी बतलाइये ? उत्तर:- यः कोपि भव्यो विषयं कषायं, प्रसादं विषमां कुबुद्धिम् । अन्येषार्थं यतते यथार्थ, स्वात्मस्वरूपं परभावभिन्नम् ॥ ३ ॥ स एव भव्यः सुखदं यथार्थ, प्राप्नोति चानन्दपदं पवित्रम् | गच्छन् सुमार्गेण यथा स्वदेशं, A प्रयाति धीमान् न खलः प्रमादी ॥ ४ ॥ अर्थ- जिस प्रकार कोई बुद्धिमान् पुरुष अपने देशको जाने के लिए श्रेष्ठ मार्ग चलता है तो पहुंच जाता है और जो दुष्ट पुरुष प्रमाद करता रहता है वह कभी नहीं पहुंच पाता । उसी प्रकार जो कोई भव्य पुरुष अपने विपय कषायों का त्याग कर देता है तथा प्रमादको छोड़कर तथा आत्माको घात करनेवाली कुबुद्धीको छोडकर पर - भावों से सर्वथा fra ऐसे अपने आत्माके यथार्थ स्वरूपको अन्वेषण करनेके लिए वा प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करता है वही भव्य पुरुष चिदानंद पदस्वरूप, अत्यंत पवित्र और अनंत सुख देनेवाले आत्माके यथार्थ स्वरूप को प्राप्त हो जाता है । भावार्थ - आत्माका स्वरूप अत्यंत पवित्र है, चिदानंदमय है अर्थात् शुद्ध चैतन्य स्वरूप और अनंत सुख स्वरूप है तथा कोधाधिक कषायों और अन्य समस्त पदार्थोंसे सर्वथा भिन्न है एवं अनंतसुख देनेवाला है । इस प्रकारके आत्माके स्वरूपको वहीं प्राप्त हो सकता है जो विषय पायोंका सर्वथा त्याग कर देता है, विपके समान आत्मा का घात
SR No.090414
Book TitleShantisudha Sindhu
Original Sutra AuthorKunthusagar Maharaj
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages365
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
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