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( शान्तिसुधासिन्धु )
___ भावार्थ- इस संसारमें धन कमानेके लिए बड़े बड़े प्रयत्न करने पड़ते हैं, बड़े बड़े दुःख सहन करने पडते है और बड़े बडे पाप करने पडते हैं । इतना सब करनेपर भी वह धन किमीको प्राप्त हो जाता है और किसीको नहीं होता । इसका कारण यह है कि धन कमानसे नहीं आता किंतु पुण्यकर्मके उदयमे आया करता है। जिस किसीके पुण्यकर्मका उदय होता है उसके परिश्रम करनेपर भी धन आ जाता है और बिना परिश्रमके भी आ जाता है । लोग लखपति वा करोडपतिके घर दत्तक चले जाते हैं वे बिना कमायें ही बहुतसे धनके स्वामी बन जाते हैं तथा उन्हीं के सगे भाई दरिद्राबस्थामं ही पडे पड जन्मभर दुःख भोगा करने हैं । इससे सिद्ध होता है कि धन आनेका मुख्य हेतु पुण्योदय है तथापि यह जीव उस धनको कमाने के लिए तीव्र दुःख भोगा करता है । यदि किसी पुण्यकर्मके उदयसे धन जा भी जाय तो उसकी रक्षा करने में महा दुःख होता है । चोर लोग सदा उसकी घात लगाया करते हैं, राजा भी सब तरहसे उनसे धन छीननेका प्रयत्न किया करता है और कुटुंबी लोग भी उसके बांटने का प्रयत्न करते रहते हैं। इन सबसे धनकी रक्षा करना अत्यंत कठिण हो जाता है । यदि कदाचित् उसकी रक्षा भी हो जाय तो उस धनके द्वारा फुटबका पालन करनेमें वा भोगोपभोगोंका सेवन करनेसे महा पाप हुआ करता है। इसके सिवाय भोगपभोगोंका सेवन करनेमे अनेक प्रकारके रोग हो जाते हैं जिससे महा दुःख होता है इस प्रकार यह धन सब प्रकारसे दुःखका साधन है । एक दान देना ही इसका सदुपयोग है । जो पुरुष धन पाकर सत्पात्रदान देता है वही पुरुष अपने धनको सार्थक बनाता है। इसलिए धन पाकर दान अवश्य देना चाहिए। बिना दानके धनको शोभा नहीं है। केवल पेटके लिए धनका संग्रह करना और अनेक प्रकारके पाप उत्पन्न करना बुद्धिमानी नहीं है । कोई भी बुद्धिमान पुरुष केवल पेटके लिए धन कमाना नहीं चाहता । क्योंकि पेट तो कुत्ता बिल्ली ऐसे नीचसे नीच पशु भी भर लेते है । धन कमानेका वा प्राप्त करनेका सदुपयोग केवल दान देना है । धनकी तीन गति हैं दान, भोग, नाश । सबसे अधिक धन दानमें देना चाहिए और बचेखुचे थोडेसे धनको भोगोपभोगके साधनमें लगाना चाहिए । जो लोग न तो दान करते हैं और न भोगोपभोगोंके साधनमें खर्च करते हैं उनका धन किसी न किसी प्रकारसे अवश्य नष्ट हो जाता है ।