SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 22
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (शान्तिसुधासिन्धु ) है । तथा परिणाम सब जीवोंके सदा एकसे नहीं रहते । कभी शभ होने हैं और कभी अशुभ होते हैं । इसलिए जिस प्रकार परिणानीमें शुभपना तथा अशुभपना बदलता रहता है उसी प्रकार उनसे बन्धे हुए कर्मोक फलमे होनेवाले सुख दुःख भी बदलते रहते हैं, कभी मुक होता है और कभी दुःख होता है । जिस प्रकार रात्रि दिन बदलते रहते हैं उसी प्रकार सुख दुःख बदलता रहता है । तथा कभी दिन बड़ा होता है और कभी रात्रि बड़ी होती है उसी प्रकार कभी दुःख अधिक होता है ओर कभी सुख अधिक होता है । अथवा जिस प्रकार कभी कभी दिन रान बराबर होते हैं उसी प्रकार कभी कभी मुख दुःख बराबर होते हैं। प्रश्न- धनार्जनं किमर्थं भो क्रियेत दुःखद गुरी ? अर्थ- हे भगवन् ! ये मंसारी जीव दुःख देनेवाले इस घनका मंग्रह किस लिए करते हैं। उत्तर - दुःखं यदुत्पादन एव तीवं, तदक्षणे स्मारक तनोएि। तद्भक्षणे तत्पचनेपि चैव-, माद्यन्तमध्ये विषमं व्यथादम् ॥ ३४ ॥) एतादृशं दुःखगृहं धनं च, भोगोपभोगाय कुटंबहेतोः । दानविना केवलकुक्षिहेतो, विचक्षणो रक्षति कश्च भव्यः ॥ ३५ ॥ ( अर्थ, इस धनके उत्पन्न करने में तीन दुःख होता है तथा उमकी रक्षा करने में उससे भी अधिक तीव्र दुःख होता है और उसके भोग करने में वा उसको पचाने में उससे भी अधिक दुःख होता है। इस प्रकार यह धन प्रारम्भमें भी विषम दुःख देनेवाला है, मध्य में भी विषम दुःस्त्र देनेवाला है । और अन्तमें भी विषम दुःख देने वाला है । इस प्रकार यह धन अनेक दुःखोंका घर है तथापि यह मनुष्य अपने भोगोपभोगके लिए अथवा अपने कुटंबके लिए उस धन को इकट्ठा किया करता है । परन्तु दानके बिना केवल पेट भरने के काममें आनेवाले उस धनको ऐमा कौन चतुर भव्य पुरुष है जो उसकी रक्षा करे ? अर्थात् कोई नहीं ।
SR No.090414
Book TitleShantisudha Sindhu
Original Sutra AuthorKunthusagar Maharaj
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages365
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy