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________________ ( शान्तिसुवासिन्धु ) प्रश्न- किं कार्यं चतुरैर्दृष्ट्वा लोकान् दोषगुणान्वितान् ? अर्थ - अनेक दोषांसे दुषित और अनेक गुणोंसे सुशोभित होनेवाले लोगोंको देखकर चतुर पुरुषोंको क्या करना चाहिए ? उत्तर - स्वाचारनिष्ठश्च गुणी स्वदोषं, २३ त्यजत्यवश्यं भवदं प्रमादम् । स्वाचारशून्यस्त्यजति स्पृहां न, ततः कुमार्ग पतति प्रमूढः ॥ ३६ ॥ पूर्वोक्त जन्तोश्च कृति विलोक्य, ह्यासभव्यो निजदोषदूरः । भयत्यवश्यं चतुरश्चिदात्मा, तवन्यजीवश्च खलः प्रमादी ।। ३७ ॥ अर्थ- गुणोंसे सुशोभित होनेवाले तथा दोषोसे दुषित होनेवाले मनुष्योंको देखकर अपने सदाचार में लीन रहनेवाला गुणवान् पुरुष संसारके महा दुःख देनेवाले दोषोंका त्याग कर देता है और उन दोषोंके कारणभूत प्रमादका त्याग कर देता है। इसी प्रकार सदाचारको कमी न पालन करनेवाला मनुष्य अपनी तृष्णाओं का त्याग नहीं करता और इसी लिए वह मूर्ख कुमार्ग में जाकर पड जाता है । इस प्रकार ऊपर लिखे हुए जीवोंके कार्योंको देखकर निकट भव्य-जीव अपने समस्त दोषोंका त्यागकर चतुर और शुद्ध चैतन्य स्वरूप बन जाते हैं तथा दीर्घ संसारी जीव गुणोंका त्यागकर दुष्ट और प्रमादी बन जाते हैं । भावार्थ - इस संसार में गुणी पुरुष अपने आत्माका कल्याण करते हुए समस्त जीवोंका उपकार किया करते हैं। इसीलिए सदाकाल और सर्वत्र उनका आदर होता है और ने इस संसार में सर्वश्रेष्ठ समझे जाते हैं। ऐसे गुणी पुरुषोंको देखकर प्रत्येक भव्य जीवको गुणी बन जाना चाहिए । यदि अपने में कोई दोष हों तो उसका त्याग कर देना चाहिए। गुणी पुरुषोंके समागमका यही सर्वोत्तम फल है । दोषोंको धारण करनेवाले पुरुष सर्वत्र तिरस्कृत होते हैं तथा अपने आत्माका भी अकल्याण किया करते हैं और अन्य दूसरे लोगोंका भी अकल्याण किया
SR No.090414
Book TitleShantisudha Sindhu
Original Sutra AuthorKunthusagar Maharaj
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages365
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
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