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________________ ( शान्तिसुधा सिन्धु ) करते हैं । इसलिए अपने आत्माके स्वरूपको जाननेवाले और इसीलिए सदाचार पालन करने में ही श्रद्धा रखनेवाले पुरुष इन दोषोंका सर्वथा त्यागकर देते हैं तथा आत्मकल्याण में लग जाते हैं । २४ प्रश्न- धने सत्यपि किं नाति किं ददाति न साधवे ? अर्थ- हे भगवन् ! अब यह बतलाने की कृपा कीजिए कि धनके रहते हुए भी बहुतसे लोक न तो उसका उपभोग करते हैं और न किमी साधुके लिए आहार तक देते हैं इसका क्या कारण है । उत्तर "जीवान् कष्टगतप्राणान्, वस्त्रानगृहवर्जितान् । स्वबन्धून् द्रव्यहीनान् वा दृष्ट्वापि योगिनस्तथा ॥ स्वयं तद्रक्षगाथं न ददाति नाति मानवः । ततो निश्चीयते द्रध्यं लोभिनां त्रागतः प्रियम् ॥ अर्थ - इस संसार में बहुतमे ऐसे पुरुष हैं जो अन्न वस्त्र घर आदि सबसे रहित हैं, धनसे सर्वथा रहित हैं और जिनके प्राण अत्यंत कष्ट भोग रहे हैं। ऐसे दुःखी जीवोंको वा ऐसे दुःखी अपने भाई बन्धुओं को देखकर भी न तो उनको कुछ देते हैं और न स्वयं खाते पीते हैं। यहां तक कि किसी महा तपस्वी मुनिको भी देखकर उनके लिए आहार तक नहीं देते हैं। ऐसे महा लोभी पुरुष उस धनकी केवल रक्षा किया करते । इससे यही निश्चय कर लेना पडता है कि लोभी पुरुषोंको अपना धन प्राणोंसे भी अधिक प्रिय होता है । भावार्थ- पहले इसी ग्रंथ में दिखला चुके हैं कि धनका सदुपयोग दान देना है। दान भोग और नाश ये तीन हो धनकी गति हैं । जो पुरुष न तो दान देते हैं, न भोगोपभोगक काममें लाते हैं उनका धन अवश्य नष्ट होता है । धनका सद्भाव तो पुण्यकर्मके उदयसे होता है । तथा जितना पुण्यकर्म का उदय होता है उतना ही बना रहता है । कूएँके जलके समान उसमेंसे चाहे जितना खर्च किया जाय तो भी वह धन बढ़कर उतना ही हो जाता है। इसलिए धन पाकर खूब दान देना चाहिये । चैत्यालय बनवाना चाहिए जिनप्रतिमा बनवानी चाहिए, चारों प्रकारके मंधके लिए जिस-जिस पदार्थ की आवश्यकता हो उसको वहीं 1
SR No.090414
Book TitleShantisudha Sindhu
Original Sutra AuthorKunthusagar Maharaj
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages365
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
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