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( शान्तिसुधासिन्धु )
जिस आत्मामें कर्मोंका उदय नहीं होता, उस आत्मामें क्रोधादिक विकार कभी उत्पन्न नहीं हो सकते । क्रोधादिक विकार जब उत्पन्न होंगे, तब बमोदो उदयसेहो हो । इसलिए वे विकार भारभाव नहीं कला सकते। यदि वे विकार आत्माके कहलाने लगे तो शुद्ध आत्मामभी उत्पन्न होने चाहिए । परंतु शुद्ध आत्मा में वा कर्म रहित आत्माम ये विकार उत्पन्न नहीं होते । वे विकार कर्मोके उदयसेही होते हैं, इसलिए वे विकार कर्मोकेही कहलाते हैं। कर्म पांदगलिक हैं, इसलिए उन विकारोंकोभी पोद्गलिक कहते हैं । परपदार्थको ग्रहण करना अपराध कहलाता है, इसलिए क्रोधादिक परधर्मोंको धारण करनेवाला जीव इस संसारमें अपराधी गिना जाता है, और अनेक प्रकारके दुःख भोगता रहता है। इसलिए क्रोधादिक परधर्मको कभी ग्रहण नहीं करना चाहिए। इनका सर्वथा त्याग कर आत्मा के निज स्वभाव में लीन होने का प्रयत्न करते रहना चाहिए, जिससे कि यह आत्मा निराकुल होकर सुखी हो जाय ।
प्रश्न- कस्मै जीवाय कः स्वामिन्न रोचते वदाधुना?
अर्थ- हे भगवन् ! अब कृपाकर मेरे लिए यह बतलाइए कि किस-किस जीवको क्या-क्या अच्छा नहीं लगता? उ.-सुरक्तपाय च पयो द्रुणाय श्वधस्य वै गामिन एवं वृत्तम् । पतिःकुपल्यै किरये खराय न रोचते मोदक एव मिष्टः ॥ भोगः सरोगाय खलाय नीतिः शुनेन सपिर्बधिराय गीतम् । न रोचतेऽर्कः किल कौशिकाय तथैव मूर्खाय निजात्मधर्मः ॥ ___ अर्थ- जिस प्रकार जोंक और बीछूको दूध अच्छा नहीं लगता, नरकगामी पुरुषको सम्यकचारित्र अच्छा नहीं लगता, कुपत्नी बा व्यभिचारिणी स्त्रीको पति अच्छा नहीं लगता शुकर, और गधेको मीठ लड्डु अच्छे नहीं लगते, रोगी पुरुषको भोग अच्छे नहीं लगते, दुष्ट पुरुषको न्याय और नीति अच्छी नहीं लगती, कुत्तेको धी अच्छा नहीं लगता, बहरेको गीत अच्छे नहीं लगते और उलकको सुर्य अच्छा नहीं लगता, उसी प्रकार मुर्ख पुरुषको अपने आत्मा का स्वभाव अच्छा नहीं लगता।