SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 248
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ { शान्तिसुधासिन्धु ) भावार्थ- जोंकको चाहे दधपरही लगा दिया जाय तो भी वह दूध छोड दती है, और खूनही पीती है, बीछूभी दूध छोड़ देता है। इसप्रकार नरकगामी पुरुषको पापही अच्छे लगते हैं, पापोंका त्याग वा सम्यक्त्रारित्रको वह कभी धारण नहीं कर सकता । व्यभिचारिणी स्त्रीको अपना जार पुरुषही अच्छा लगता है, यदि अपना पति सुंदर, गुणवान हो, तो भी अच्छा नहीं लगता। सुअर और गधेको लड्ड अच्छे नहीं लगते, उनको तो रेपर चरनाही अच्छा लगता है। रोगी पुरुषको भोग कभी अच्छे नहीं लग सकते । दुष्ट पुरुषोंको न्याय व नीति कभी अच्छी नहीं लगती, उनको तो अन्याय और उपद्रवही अच्छे लगते हैं । इसप्रकार कुत्ता घीको अच्छा नहीं समझता, बहिरा पुरुष गीत-बाजेको अच्छा नहीं समझता, और उल्लूको सूर्य अच्छा नहीं लगता. उल्लको तो रातही अच्छी लगती है । इस प्रकार आत्माके स्वरूपको न जाननेवाले अज्ञानी पुरुषको आत्माका शुद्ध स्वरूप कभी अच्छा नहीं लगता । उसको क्रोधादिक कषायही अच्छ लग सकते हैं, इसलिए प्रत्येक भन्यजीवको अपने आत्माके स्वरूपको समझनेका प्रयत्ल करना चाहिए. जिससे कि शीघ्रही अपना अज्ञान नष्ट होकर आत्माका कल्याण हो । प्रश्न- 'भ्रमत्ययं गुरो जीवः किमर्थं संसृतौ वद ? अर्थ- हे प्रभो ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि यह जीव इस संसारमें किस कारणसे परिभ्रमण करता है ? उत्तर - जिम्हायोनिप्रसंगेनाष्टांगुलमानकेन च । शूरो वीरश्च धीरोपि शक्तोपि चतुरोपि च ॥ ३५९ ॥ धर्म स्थर्मोक्षदं त्यक्त्वा करोति भवदां कृत्रिम् । ततस्तन्मोचनार्थ भो सबुद्धि हृदि धारय ।। ३६० ॥ अर्थ- यद्यपि इस संसारमें पांचों इंद्रियोंके विषय दुःख देनेवाले और संसारमें परिभ्रमण कराने वाले हैं, तथापि इन पांचों इंद्रियों में से जिव्हा इंद्रिय और योनि बा लिंग इंद्रिय ये दो इंद्रियां बहत प्रबल हैं। यद्यपि दोनों इंद्रियां चार-चार अंगुलकी है,तथापि इन दोनों इंद्रियोंकेही कारण शूरवीर, धीरबीर, समर्थ और चतूर मनुष्य भी स्वर्ग मोक्ष देनेवाले धर्मका त्याग कर देता है, और जन्म मरणरूप संसारको बढानेवाले
SR No.090414
Book TitleShantisudha Sindhu
Original Sutra AuthorKunthusagar Maharaj
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages365
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy