SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 95
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (शान्तिसुधासिन्धु ) प्रश्न- संसारकार्यकर्ता यस्तस्य सिद्धिर्भवेन्न बा ? अर्थ- हे प्रभो ! अब यह बतलाइये कि जो मनुष्य संसारके कार्य करने में लगा रहता है, उसको मोक्षकी प्राप्ति हो जाती है वा नहीं ? उत्तर - कर्तापि भोक्ता परवस्तुनोस्मि, हता स्वरादेर्जनबान्धवानाम् । स्वामी प्रजानां सुखदुःखदाता, ममोपरीहाखिलविश्वभारः ।। १४७ ॥ एवं विचारो हवि यस्य तस्य, संसारवृद्धिः शिवमार्गहानिः । तद्भावमुक्तस्य नरोत्तमस्य, संसारनाशः सुखशांतिलाभः ॥ १४८ ॥ अर्थ- मैं परपदार्थों का कर्ता हूं. भोक्ता हूं, अपने भाई बंधुओंके ज्वरादिकको दूर करनेवाला हूँ, प्रजाका स्वामी हैं, और प्रजाको सुख वा दुःख देनेवाला हूं। इस संसारमें मेरे ही ऊपर समस्त संसारका भार आ पडा है । इस प्रकारके विचार जिसके हृदयमें सदा बने रहते हैं, वह मनुष्य जन्म-मरणरूप संसारकी वृद्धि ही करता रहता है, तथा मोक्षमार्गकी हानि करता रहता है। परंतु जो मनुष्य ऐसे विचारोंको छोड़ देता है, उस उत्तम पुरुषका जन्म-मरणरूप संसार नष्ट हो जाता है, और अनंत मुख तथा अनंत शांतिकी प्राप्ति हो जाती है। भावार्थ- इस संसारमें परपदार्थोका ममत्व ही संसार को बढानेबाला है, जिस जीवके परपदार्थोंका ममत्त्व होता है, वही जीव परपदार्थोका कर्ता वा भोक्तारूप बुद्धि रखता है । वह यही समझता है, कि यह मकान मैंने ही बनाया है, यह वस्त्र मैंने ही बनाया है, यह भोजन मैंने ही बनाया है, मैं इस मकानका मालिक हूं, यह भोजन मेरे लिये है, मैं ऐसे उत्तम वस्त्र धारण करता हूं, यह रोग मैने खो दिया, मैं चक्रवर्ती सम्राट हूं, मेरे आधीन इतनी प्रजा है, और यह काम मैंने किया है । इसप्रकारके विचार वा इस प्रकारकी समझ संसारी जीवोंकी ही होती है, इसको पररूप बुद्धि कहते हैं । यह पररूप बुद्धि तीव्र कर्मोका बंध करती है । यदि वास्तबमें देखा जाय तो यह आत्मा अमूर्त है । इसलिये
SR No.090414
Book TitleShantisudha Sindhu
Original Sutra AuthorKunthusagar Maharaj
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages365
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy