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( शान्तिसुधासिन्धु )
उत्तर - यस्तत्त्ववेदी व्यवहारमार्गाद्
मोक्षप्रदानिश्चयमार्गतश्च। स्वानन्दवेशान चलेकदापि दृग्बोधचारित्रमयात्स्वभावात ॥ १८७ ।। यस्तत्त्ववेदीव विभाति किन्तु तत्त्वात्प्रमूढो न च तत्त्ववेदी । ततश्चलेत्स व्यवहारमार्गात् मोक्षप्रदानिश्चयमार्गतोपि ॥ १८८ ॥
अर्थ- जो पुरुष आत्मतत्त्व के स्वरूपको जानता है, वह पुरुष न तो व्यवहार मार्गसे चलायमान होता है, न मोक्ष देनेवाले निश्चयमार्गसे चलायमान होता है, न अपने आत्मजन्य चिदानंद प्रदेशसे चलायमान होता है, और न मम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रमय अपने आत्माके स्वभावसे चलायमान होता है। परंतु जो पुरुष यथार्थमें आत्मतत्त्वका जानकार नहीं है, परंतु ऊपरसे आत्मतत्त्वकी जानकारी दिखलाता है। जो वास्तवमें अज्ञानी है, और आत्मतत्त्वका जानकार नहीं है, वह पुरुष व्यबहार मार्गसे भी चलायमान हो जाता है, और मोक्ष प्रदान करनेवाले निश्चयमार्गस भी चलायमान हो जाता है।
भावार्थ- मिथ्यात्वकर्मका उदयही आत्माको अपने स्वभावसे चलायमान करता है। मिथ्यात्वकर्मके उदयसेही इस जीवका बहुत बड़ा हुआ ज्ञानभी मिथ्याज्ञान कहलाता है, कितने ही मुनि ग्यारहअंगोतकका अध्ययन कर लेते हैं, परंतु मिथ्यात्वकर्मका उदय उनके इतने बड़े ज्ञानको भी विपरीतरूप परिणत कर देता है, और उनके ज्ञानको मिथ्या बना देता है । वह मिथ्याज्ञान मोक्षमार्गमें नहीं लग सकता किंतु उससे विपरीत संसारको बढानेवाले कार्यों में ही लगता है। ऐसा पुरुष निश्चयमोक्षमार्गसे चलायमान होता है, अपने चिदानन्द प्रदेशोंसे चलायमान होता है, और रत्नत्रयरूप धर्मसे भी चलायमान होता है । इसके सिवाय वह व्यवहारमार्गसे भी चलायमान हो जाता हे । यही कारण है, कि भव्यसेनमुनि मिथ्यात्वकर्मके उदयसे