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( शान्तिसुधासिन्धु )
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विद्याप्रमत्तस्य वसद्धि चित्ते पूर्वोक्तधर्मेण विरुद्ध वेषः । विरवृतिश्च विरुद्ध भावः
ततः सुबुद्धि जिन देहि तस्मै ॥ १८६ ।।
अर्थ- जो पुरुष विद्या अध्ययन करनेके कारण विनीत हो रहे हैं, ऐसे पुरुषों के हृदय में अच्छी प्रवृत्तियां बनी रहती हैं, विनय बनी रहती है, उनके परिणाम दयासे भीगे रहते हैं, उनके हृदयमें भले-बुरेका विचार रहता है, और समस्त इच्छाओंको पूर्ण करनेवाला आत्माका स्वभावरूपधर्म उनके हृदयमें ऊपर कहीं हुई भावनाएं रहती हैं, जो अविनयी है उनके भाव विरुद्ध रहते है, और उनकी प्रवत्ति भी विरुद्ध रहती हैं । इसलिये हे भगवन् ! ऐसे लोगोंके लिए आप श्रेष्ठ बुद्धि प्रदान करें।
भावार्थ- विनय करना, अच्छी प्रवृत्ति रखना, दया धारण करना, भले-बरे कामका विचार करना और अपने धर्मका पालन करना आदि मनष्यके धर्म कहलाते हैं। इन्हींको गुण कहते है । ये गुण प्रायः विद्याध्ययन करने से आते हैं । विद्याध्ययन करनेसे आत्मविद्याका अध्ययन ग्रहण करना चाहिए । क्योंकि विनय, शुभ प्रवृत्ति, सत्-असत्का विचार आदि आत्माके गुण है । वे आत्माके गुण आत्मतत्त्वका अध्ययन करनेसे ही प्राप्त हो सकते हैं। वर्तमान में कुछ ऐसी विद्याओंका प्रचार हो रहा है, जिनके अध्ययन करनेसे मायाचारी बढती है, बिनयगुण सर्वथा नष्ट हो जाता है, और सत-असतका विचार सर्वथा नष्ट हो जाता है । ऐसी विद्याओंके अध्ययन करनेसे आत्माके गुण कभी प्रगट नहीं हो सकते, किंतु नष्ट हो जाते हैं। इसलिए आत्माके गुण प्रगट करनेके लिए आत्मविद्याका ही अध्ययन करना चाहिए, अन्य विद्याओंका अध्ययन यदि करना हो तो, पहले आत्मविद्याका अध्ययन कर लेना चाहिए, फिर अन्य विद्याओंका अध्ययन करना चाहिए।
प्रश्न- कश्चलति स्वधर्माद् भो वद मे शर्मद प्रभो !
अर्थ- हे कल्याण करनेवाले प्रभो ! अब कृपाकर यह बतलाइये कि कौन पुरुष अपने धर्मसे चलायमान हो जाता है ?