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( शान्तिसुधा सिन्धु )
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त्याग कर देता है । इस प्रकार आत्मा के साथ लगे हुए परपदार्थोंका सर्वथा त्याग कर देनं से वह शुद्ध स्वरूप ज्ञातादृष्टा चिदानंदमय निमले स्वात्मा अर्कलाही रह जाता है, उस समय परपदार्थोंका कोई संबंध न रहने के कारण, उस आत्मामें कोई किसी प्रकारकी आकुलता प्रगट नहीं होती। इस प्रकार अपने आत्माके स्वरूपको तथा अन्य समस्त पदार्थोंके स्वरूपको जान लेनेसे अपने आत्मामें परम शांतिकी प्राप्ति होती है, यही परम शांति मोक्षकी प्राप्तिका मुख्य साधन है । इसलिए भव्यजीव जिस प्रकार भगवान जिनेंद्रदेवकी सेवा वा भक्ति करके आत्मामें परम शांति प्राप्त करते हैं, उसी प्रकार अपने शुद्ध स्त्ररूप और परम सुख देनेवाले आत्माकी सेवा करके वा उसका चितवन करके समस्त भव्य जीवोंको अपने आत्मामें परम शांति प्राप्त कर लेनी चाहिए । ऐसी परम शांति प्राप्त कर लेने के अनंतर उस भव्यजीवको मोक्ष की प्राप्ति अवश्य हो जाती है ।
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प्रश्न - मिथः सम्बन्धत्रचना को हेतुविद्यते वद ?
अर्थ-हे भगवन् अब कृपाकर यह बतलाइये कि पदार्थों में परस्परक संबंध होनेसे वा परस्पर के संबंधकी चर्चा करनेसे क्या लाभ होता है । उ. - दुःखप्रदानां भवबन्धकानां संयोगतो बाह्यपदार्थ कानाम्
भीमे भवाब्धौ च पतन्ति मूढाः विभावशक्तेः प्रबलोदयाद्वा यथेय मेघाः पवनप्रसंगात् प्रजा यथा दुष्टनृपस्य संगात् । मिथः प्रबोधादिति तेपि शान्ति लब्धा लभन्ते समयं स्वराज्यम्
अर्थ - जिस प्रकार वायुके संयोगसे सब मेघ बिखर जाते हैं, और दुष्ट राजाके संबंध से प्रजाभी बिगड जाती है, उसी प्रकार विभाव-शक्ति के प्रवल उदयसे तथा दुःख देनेवाले और संसारका बंध करनेवाले बाह्य पदार्थोंके संबंध से ये अज्ञानी जीव इस भयंकर संसाररूपी समुद्रमे गिर कर डूब जाते हैं, तथा वे ही अज्ञानी जीव उन दोनोंका यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर लेनेसे अपने आत्मामें परम शांति प्राप्त कर लेते हैं, और उस परम शांतिको प्राप्त कर लेने से अपने आत्मा के शुद्ध स्वरूपको तथा मोक्षरूप स्वराज्यको प्राप्त कर लेते हैं ।
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