SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 324
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( शान्तिसुधासिन्धु ) भावार्थ- इस संसार में यह जीव इन कर्मोकेही निमित्तमे अनादोकालसे परिभ्रमण कर है। अपने का यदि के दिन गौद्गलिक कर्मोको ग्रहण करता है, और फिर उन कर्मोंके उदयसे दुःखी होता हुआ, नवीन कर्मों को ग्रहण करता है । इस प्रकार बीज और वक्षके समान, कर्म और कषायोंका संबंध इस आत्माके साथ लगा हआ है । ये कर्म और कषाय दोनोंही पौद्गलिक है, और आत्मासे सर्वथा भिन्न हैं। इन्हीं कौके उदयसे होनेवाले कषायोंको वा मोहादिके विकारोंको विभाव-भाव कहते हैं। इन्हीं विभाव-भावोंकी तीव्रतासे यह जीव अशुभ कर्मोंका बंध करता है, और उन अशुभ कर्मोके उदयसे इस मंसार-समुद्र में परिभ्रमण करता हुआ महादुःख भोगता है । जिस प्रकार वायके निमित्तसे बादल बिखर जाते हैं, अथवा जिस प्रकार दुष्ट राजाके कारणसे प्रजा डरकर महादुःखी होती है, उसी प्रकार इन कर्म और कषायोंके निमित्तसे यह जीव इस संसारमें पडा पड़ा महादुःख भोग रहा है, जब यह जीव अपने आत्माका, वा कषायका, वा कर्मोका यथार्थ स्वरूप जान लेता है, तब यह जीव उन कषाय और कर्मोको आत्मासे सर्वथा भिन्न समझकर उनका त्याग कर देता है, और अपने आत्माके शुद्ध स्वरूपकोही अपना स्वरूप समझकर उसमें लीन हो जाता है, जब यह आत्मा अपने आत्माके शुद्ध स्वरूपमे लीन हो जाता है, तब परपदार्थोके निमित्तसे होनेवाली आकुलतामी नष्ट हो जाती है, और फिर उस आत्माको परम शांतिकी प्राप्ति हो जाती है । इसप्रकार वह आत्मा परमशांत होकर अपने शुद्ध स्वरूपको प्राप्त कर लेता है, और मोक्षरूप स्वराज्यको प्राप्त कर लेता है, आत्मकल्याणका यही उपाय है। प्रश्न- पंचामृताभिषेकादिः किमर्थं क्रियते प्रभो ? अर्थ- हे प्रभो ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि भगवान् जिनेंद्रदेवकी मूर्तिका पंचामृताभिषेक फिसलिए किया जाता है ? उ.-शुद्धजल शान्तिकरैः प्रियश्च सुख प्रर्दश्चक्षुरसैः सुमिष्टः । श्रेष्ठः घृतः कांचनवर्णतुल्यः शुभ्रमहापौष्टिकरेष्च दुग्धः।४७२ श्रीक्षीरसिधोधिभिः प्रगादः सर्वागदश्च स्वसुखप्रबंश्च । जिनेन्द्रमर्तेश्च क्रियतेभिषेको रसस्तथाम्रादिमहाफलानाम् ॥
SR No.090414
Book TitleShantisudha Sindhu
Original Sutra AuthorKunthusagar Maharaj
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages365
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy