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( शान्तिसुधासिन्धु )
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प्रश्न- स्त्रपरवस्तुबोधेन सिद्धिर्भ :
अर्थ- हे प्रभो ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि स्व और परपदार्थोके ज्ञान होने से किसकी सिद्धि होती है ? उ.-एकः सदा मे विमलोस्ति स्वात्मा ज्ञातापि दृष्टा हि परंरभेद्यः।
स्वानंदपूरोऽखिलदुःखदूरः सदा स्वसंवेदनतश्च गम्यः।।४६८।। पूर्वोक्तधर्मेण विजितो यः स एव हेयश्च निजात्मनोऽन्यः। ज्ञात्वेति सेव्यः सुखदो निजात्मा शान्त्यं यथा भव्यजनैजिनेंद्रः।
अर्थ- यह मेरा आत्मा अत्यंत निर्मल है. एक है, दष्टा है, भरोके द्वारा अभेद्य है, अपने आत्मजन्य आनंदका पूर है, समस्त दुःखोसे दूर है, और सदाकाल अपने आत्माके स्वसंवेदनज्ञानके द्वारा जाना जाता है । जो पदार्थ ऊपर लिखे हुए धर्मसे रहित हैं, और अपने आत्मासे भिन्न है, वह सदाकाल हेय वा त्याग करने योग्य समझा जाता है । यही समझकर जिसप्रकार भव्यजीव अपने आत्मामें शांति प्राप्त करने के लिए भगवान जिनेन्द्र देवकी पूजा सेवा करते हैं, उसीप्रकार अपने आत्मामें परम शांति प्राप्त करने के लिए सुख देनेवाले अपने आत्माकीही सेवा करनी चाहिए, अर्थात अपने आत्माकाही ध्यान वा चितवन करना चाहिए ।
भावार्थ- स्वपरभेदविज्ञान होनेसे आत्मामें परम शांतिकी प्राप्ति वा सिद्धि होती हैं । इसकाभी कारण यह है कि, मोहनीय कर्म अपने आत्माके स्वरूपको भुला देता है। मोहनीय कर्म के उदयसे यह आत्मा अपने स्वरूपको नहीं देख सकता, नहीं जान सकता, जब कभी किसी विशेष पुण्यकर्मके उदयसे अथवा काल लब्धिके निमित्तसे उस मोहनीय कर्मका उपशम, वा क्षयोपशम, वा क्षय हो जाता है, तब उस आत्मामें एक प्रकारका निर्मल प्रकाश प्रगट हो जाता है, उस निर्मल प्रकाशको सम्यग्दर्शन कहते हैं, । उस निर्मल प्रकाशके प्रगट होनेसे यह आत्मा अपने आत्मस्वरूपको देखने और जानने लगता है । जब यह आत्मा अपने आत्मस्वरूपको देख लेता है, या जान लेता है । तब यह आत्मा अपने आत्मस्वरूपको उपादेय समझकर ग्रहण कर लेता है, और उस आत्माके शुद्ध स्वरूपके सिवाय अन्य समस्त आत्माके विकारोंका