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( मान्तिसुवासिन्धु )
भावार्थ
इस संसार में आत्मतत्वका चितवन सर्वोत्कृष्ट माना जाता है । यद्यपि उसका स्वरुप अत्यंत शुद्ध और विविकल्प है, और इसीलिए वह अवक्तव्य है । कहा नहीं जा सकता, तथापि उसका स्वरूप किसी एक एक गुणके द्वारा कहा जाता है, तथा किसी एक गुणके द्वारा ही चितवन किया जाता है। अनंतज्ञान, अनंतसुख और अनंतवीर्य ये चार अनंतचतुष्टय आत्मा के निज स्वरूप हैं। ये आत्माके चारों गुण घातिया कर्मो के सर्वथा नाश होनेसे प्रगट होते हैं । दर्शनावरण कर्मोंका सर्वथा नाश होनेसे अनंतदर्शन गुण प्रगट होता है, ज्ञानावरण कर्मका नाश होनेसे अनंतज्ञान वा केवलज्ञान प्रगट होता है, मोहनीय कर्मका नाश होने से अनंतसुख प्रगट होता है, और अन्तराय कर्मका सर्वथा नाश होने से अनंतवीर्य प्रगट होता है। ये चारों गुण सिद्ध अवस्था में भी आत्मा के साथ रहते हैं, इसलिए चारों गुण आत्माके स्वभावरूप है, अथवा आत्मा निजधर्मरूप है। इनमेंसे किसी एक गुणके द्वारा आत्माके शुद्ध स्वरूपका चितवन करना आत्मामें परम शान्ति प्राप्त करनेवाला है । यद्यपि इन चारों गुणोंमेंसे ज्ञान गुण साकार है, और सविकल्पक है, तथा शेष सब गुण निराकार और निर्विकरूपक हैं, तथापि ज्ञानके द्वारा उनका निरूपण किया जाता है । यद्यपि अन्य समस्त पदार्थोंके चितवन करनेसेभी शांति प्राप्त होती हैं, तथापि समस्त पदार्थ वा तत्त्वोंकी अपेक्षा आत्मतत्त्व सर्वोत्कृष्ट तत्त्व है । समस्त तत्त्वोंमें एक आत्मत्वही उपादेय है, शेष तत्त्व हेय है । इसलिए आत्मतत्वका चितवन करना सर्वोत्कृष्ट चितवन वा ध्यान कहलाता है, और इसीलिए आत्मतत्त्वका चितवन करने से परम शांति प्राप्त होती है। इसका कारण यह है कि, अपने आत्मतत्वका चितवन करनेसे यह आत्मा अन्य समस्त संकल्प - विकल्पोंका स्याग कर, केवल आत्मामेंही लोन हो जाता है । इसलिए उस समय उस आत्मामें सब प्रकारकी आकुलतांए नष्ट हो जाती हैं, और केवल आत्मामें लीन होने के कारण परम शांति प्राप्त हो जाती है। वह परम शांति सब प्रकार के आसव वा बंधको रोकनेवाली होती है । और आत्माका परम कल्याण करनेवाली होती है । जो लोग इस प्रकारके आत्माका चितवन करते हुए भी परम शांति प्राप्त नहीं करते, उनका वह आत्मचितवन सर्वथा मिथ्या समझना चाहिए और इलिसीए वह चितवन मूर्ख मनुष्य के समान महादुःख देनेवाला समझना चाहिए ।
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