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| Ailतसुधागि
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आचरणोंको धारण करनेवाला माना जाता है, यही समझकर पशुओंके समान अचारणोंका त्याग कर देना चाहिए, और सुख देनेवाले पवित्र कार्य करते रहना चाहिए ।
भावार्थ- इस संसारमें परिभ्रमण करते हुए इस जीवको मनुष्य जन्म बड़ी कठिनतासे प्राप्त होता है, तथा यह मनुष्यपर्यायही एक ऐसी पर्याय है, जिसमें यह प्राणी विवेकपूर्वक अपना कार्य कर सकता है, अपने आत्माका कल्याण कर सकता है, और पापकर्मोसे बच सकता है। मद्य, मांस, मधुका सेवन करना महापाप कार्य है । जो गाय आदि उत्तम पशु कहलाते हैं. वे भी इस मद्य मांसादिकका सेवन नहीं करते । फिर भला मनुष्य होकर मद्य मांसादिकका सेवन किस प्रकार करना चाहिए । मनुष्य होकर मद्य मांसादिकका सेवन करना पशुओंमेभी अधिक निन्दनीय कार्य माना जाता है, इसलिए मद्य मांसादिकका त्याग कर देना प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य हो जाता है। इस प्रकार सदाकाल विषयोंकी अभिलाषा रखना पशुओंसेभी बढकर निंद्य कार्य है। पशुभी सदाकाल इसमें नहीं लगे रहते । तिसपरभी वे विवेकहीन कहलाते हैं । यह मनुष्य विवेकी कहलाता है । विवेकी होकरभी सदाकाल विषयोंकी अभिलाषा करते रहना पशुवत्तिसे भी बढ़कर है, इस संसारमें अभक्ष्य भक्षण पशु भी नहीं करते, पशुओंके लिए जो अभक्ष्य होता है, उस वे इंधकरही छोड़ देते है, परन्तु यह मनुष्य विवेकी होकरभी सब कुछ खा जाना है, इसमें बढकर पशुओंसे भी अधिक निद्यपना और क्या हो सकता ? इस प्रकार ऊंच-नीच वा निन्दनीय आदि सब घरोंमें भोजन कर लेना वा मबके साथ भोजन कर लेना, पशओंसे भी अधिक निन्दनीय है। भोजन करना एकांत कर्तव्य है। यदि किसीके साथ करना पड़े तो समान वर्णका समान जातिका और समान धर्मवालेकेही साथ किया जाता है। अन्यके साथ नहीं । क्या कभी किसीने किसी सिंहको गीदडके साथ खाते देखा है ? फिर भला उच्च वर्ण, उच्च जाति और उच्च धर्मके हो करभी नीच जातियोंके साथ भोजन करना, सिंह आदि पशुओंसे भी अधिक निन्दनीय कर्तव्य है । इस प्रकार विवेकशून्य होना, दया रहित होना, विद्या रहित होना और लोगोंको ठगना आदि सब कार्य निन्दनीय हैं, और पशओंके समान है । पशु कभी किसीको नहीं ठगते हैं, परन्तु मनुष्य पशुओंकोभी ठगता है, और मनुष्यों को भी ठगता है । अतएव प्रत्येक भव्यजीवको इन