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( शान्तिसुधासिन्धु )
बे परमपूज्य अरहतदेव अपने पूज्य चरणोंको जहांपर रख देते हैं बह स्थानभी तीर्थ हो जाता है। अथवा भगवान के पंचकल्याणक स्थानोंकोभी तीर्थ कहते हैं। ये सब तीर्थस्थान उन भगवान अरहंत देवके स्पर्शमाअसेही अत्यंत पवित्र हो जाते है। इसका कारण यह है की भगवान अरहतदेवका आत्मा अत्यंत शद्ध एवं पवित्र और समस्त दोषोंसे रहित है। उस आत्माके संबंधसे उनका शरीरभी परम-पवित्र और पूज्य हो जाता है ।उस पवित्र और पूज्य शरीरके संबंधसे स्थानभी पूज्य हो जाता है। यद्यपि वह स्थान वा तीर्थ स्वयं देव नहीं है, तथापि देवके संबंधसे पूज्य और पवित्र अवश्य है।
देवका लक्षण ऊपर लिखा जा चुका है, उन परमदेवका दर्शन उन्ही महापुरुषोंको होता है, जो अपने मोहको नष्ट कर स्वयं पवित्र हो जाते हैं । जिनका मोहनीयकर्म नष्ट नहीं हुआ है, ऐसे जीव प्रायः उन भगवानके दर्शन करनेसे वंचित रहते हैं। इसलिए भगवान अरहंतदेयके दर्शन करने के लिए प्रत्येक भव्यजीवको सबसे पहले अपने मोहको नष्ट कर देना चाहिए, अथवा मोहनीयकर्म नष्ट कर सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लेना चाहिए । यह उसका कर्तव्य है ।।
प्रश्न- नरोपि पशुवद् भाति कीदृक् स वद मे प्रभो ?
अर्थ- हे भगवन् ! अब कृपाकर यह बतलाइये कि कौनसा मणुष्य, मनुष्य होकर भी पशुके समान माना जाता है ? उ. यो मांससेवी मधुमद्यपायी, वाऽभक्ष्यभक्षी विषयाभिलाषी । निये च नीचोच्चगहेपि भोजी, विद्याविहीनश्च विवेकशून्यः।। स्यादिहीनो जनवंचकः स, नरोपि लोके पशुतुल्यवृत्तिः। ज्ञात्वेति मुक्त्वा पशुतुल्यवृत्ति, कुर्वन्तुकार्य सुखदं पवित्रम् ॥
अर्थ- जो मनुष्य मांस सेवन करता है, शहद भक्षण करता है, मद्य पीता है, अथवा अन्य समस्त अभक्ष्य पदार्थोका भक्षण करता है, जो विषयोंमें तीन लालसा रखता है, जो निदनीय वा ऊंच, नीच सबके घरमें भोजन करता है, जो विद्या रहित है, विवेक रहित है, दया, क्षमा आदि उत्तम गुणोंसे रहित है, और जो लोगोंको ठगता फिरता है, वह मनुष्य, मनुष्य होकार भी इस संसारमें पशुओंके समान आचरणोंको धारण करनेवाला माना जाता है । यह समझकर पशुओंके समान