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________________ (शान्तिसुधा सिन्धु ) प्रश्न- स्वात्मरसेन शून्यो यः स बद मेऽस्ति कीदृश: ? अर्थ- हे स्वामिन् ! अब कृपाकर मेरे लिये बतलाइए कि जो मनुष्य अपने आत्मजन्य आनंद रसका स्वाद नहीं लेता वह कैसा है ? उ. कौ यो यदि स्यात्स्वरसेन रिक्तः स ध्यान लोगोपि बकप्रमाणः मासोपवासेन तोपि भोगी सुसत्यवक्ता नृतभाषको हि ॥ बने निवासीत्यपि हयवासी सन्तोषशीलोपि सदाभिलावी । स्यादुद्ब्रह्मचारी मिथुनाभिलाषी ज्ञात्वेति न स्यात्स्वरसेन रिक्तः २५४ अर्थ संसारको अनंद रसका आस्वाद नहीं करता, वह यदि ध्यान में तत्पर रहता है, तो भी बगुलावे समान समझा जाता है । यदि वह महीने दो महीनेका उपवास धारण करता है, तो भी वह भोग करनेवालाही माना जाता है । यदि वह सत्यभाषण करता है, तो भी वह मिथ्याभाषण करनेवालाही माना जाता है, यदि वह बनमें रहता है, तो भी घरमें रहनेवालेके समान गृहस्थही कहलाता है। यदि वह संतोष धारण करता है, तो भी कह अभिलाषीही कहलाता है, और यदि वह ब्रह्मचारी है, तो भी वह मैथुन सेवन करनेकी इच्छा करनेवालाही कहलाता है । यही समझकर प्रत्येक भव्यजीवको अपने अत्मजन्य आनंदरसका आस्वाद लेनेका प्रयत्न करते रहना चाहिए, आत्मजन्य आनंद रससे शून्य कभी नहीं रहना चाहिए। भावार्थ - ध्यान करना, तपश्चरण करना, उपवास करना, सत्यभाषण करना, बनमें निवास करना, संतोष धारण करना और ब्रह्मचर्य पालन करना आदि जितने मोक्षके साधन हैं वे सब आत्माकी सिद्धिके लिए किये जाते हैं आत्माकी सिद्धि आत्माको शुद्ध कर लेनेसे होती है, और जब यह आत्मा शुद्ध हो जाता है, तब ही इस जीवको आत्मजन्य आनंदकी प्राप्ति हो जाती है । जो पुरुष ध्यान करता हुआ भी आत्मजन्य आनंदका आस्वादन नहीं करता वह बगुला के समान ही समझा जाता है । बगला भी ध्यान करता है, परंतु उसे आत्माका आनंदरस प्राप्त नहीं होता । इसीप्रकार आत्मानंद रससे रहित ध्यानी पुरुष को समझना चाहिए । उपवास भी काय और कषायोंको नष्ट करनेके लिए किया जाता हैं, जब
SR No.090414
Book TitleShantisudha Sindhu
Original Sutra AuthorKunthusagar Maharaj
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages365
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
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