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________________ ( शान्तिसुधासिन्धु ) २५३ जीवोंको संतुष्ट करनेका प्रयत्न करते हैं वे मखों में मुख्य कहलाते हैं, और अनापसे जान पड़ते हैं। इसका भी कारण यह है कि अत्यन्त भक्तिके द्वारा किसी एक जीवको संतुष्ट करता है, तो अन्य जीव उसपर क्रोध करते हैं अथवा उसकी निंदा करते है । इस प्रकार ऊपर लिखी नीतिको समझकर समस्त जीवोंको संतुष्ट करनेकी चिताका त्याग कर देना चाहिए, तथा अपने आत्माकी सिद्धि, अपने परिणामोंकी गद्धि और अपने आत्मरसका. वा अपने आत्मजन्य आनंदरसका पान सदाकाल करते रहना चाहिए । ऐसे करते रहने पर चाहे कोई निदा करे, चाहे कोई क्रोध करे, और चाहे कोई नमस्कार करे, तथापि धीरवीर पुरुषोंको अपने धर्मसे कभी चलायमान नहीं होना चाहिए। भावार्थ- इस संसारमें सभी तरहके मनप्य हैं । कितनेही सज्जन हैं, और कितनही दुर्जन हैं। कितनेही मूर्ख हैं, और कितनही विद्वान् है। कितनेही धनी हैं, और कितनेही निर्धन हैं । यदि कोई पुरुष सज्जनोंको संतृष्ट करता है तो दुर्जन मष्ट हो जाता है। यदि कोई किसी विद्वानको संतुष्ट करता है, तो मूर्ख रुष्ट हो जाता है। यदि कोई किसी निर्धनको संतुष्ट करता है, तो धनी रुष्ट हो जाता है, तथा इस घमारमें ऐसा कोई उपाय नहीं है, जिससे सज्जन-दुर्जन दोनों संतुष्ट होजाय अथवा धनी-निर्घनी दोनो संतुष्ट हो जाम अथवा विद्वान-मूर्ख दोनों संतुष्ट हो जाय। क्योंकि जिस कार्यसे विद्वान् संतुष्ट होते हैं उससे मूर्ख कभी संतुष्ट नहीं हो सकते जिससे सज्जन संतुष्ट होते हैं उसीसे दुर्जन लोग कभी संतुष्ट नहीं हो सकते । इस प्रकार विचार करनेसे यही मालूम होता है कि इस संसारमें कोई ऐसा उपाय नहीं है जिससे सभी लोग संतुष्ट हो जाय । इसलिए सबको संतुष्ट रखनेका प्रयत्न करना भर्खता है। प्रत्येक भव्यजीवको संतुष्ट करने की चिंता छोड देनी चाहिए । तथा अपने आत्माका कल्याण करने का प्रयत्न करना चाहिए। अपने आत्माका कल्याण करने के लिए अपने परिणामोंको शुद्ध रखना चाहिए, समस्त पापोंका त्याग कर देना चाहिए, और शुद्ध परिणामोंसे अपने शुद्ध आत्माका ध्यान कर आत्मजन्य आनंदका स्वाद ले लेना चाहिए । यही मोक्षका उपाय है। भव्यजीवको यह बात विशेष ध्यान देने योग्य है कि कोई अपनी निंदा करे वा प्रशंसा करे अथवा क्रोध करे अथवा कृपा रक्त्रे परंतु अपने आत्मधर्नमे कभी चलायमान नहीं होना चाहिए, यही भाजीवका मुख्य कर्तव्य है।
SR No.090414
Book TitleShantisudha Sindhu
Original Sutra AuthorKunthusagar Maharaj
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages365
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
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