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( शान्ति सुधासिन्धु )
प्रारंभ किया और पहलेही श्लोक में वंदना करनेवाला शब्द आया, उसी समय वह महादेवकी मूर्ति फट गई, और उसमें से भगवान चंद्रप्रभकी चतुर्मुखी प्रतिमा प्रगट हो गई। यह देवभक्तिका उमडता हुआ महा सागर कितना अगाध है, यह ऊपर लिखी घटनासे मालूम होता है । यह देवभक्तिका अतिशय देखकर महाराज शिवकोटिके परिणाम बदल गये थे और उन्होंने वितीक्षा लेकर आराधनासार नामके महाग्रंथ की रचना की थी। जिस देव शास्त्र गुरुकी भक्ति से बडे-बडे देव भी वश हो जाते हैं, उस भक्ति से समस्त संसार वश हो जाय, इसमें आश्चर्य ही क्या है | इसप्रकार धीरता, उद्यम, शांति, शौर्य, चतुरता, पवित्रता, तत्त्वज्ञता, आत्म बुद्धि, परस्परमंत्री आदि आत्माके बहुतसे ऐसे गुण हैं, जिसके आधीन यह समस्त संसार हो जाता है। अतएव प्रत्येक भव्यजीवको इन गुणोंको धारण करनेका प्रयत्न करना चाहिए जिससे यह समस्त संसार भी वशमें हो जाय और मोक्ष भी अपने आप प्राप्त हो जाय । प्रश्न ये
परान् तोषणार्थं की यतन्ते वद कीदृशाः ?
अर्थ - हे स्वामिन् ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि जो लोग अन्य सब जीवोंको संतुष्ट करनेका प्रयत्न करते रहते हैं वे कैसे हैं ? उ. जीवो न दृष्टोऽखिलतोषकारी, हेतुस्तथा न प्रबलो ह्यसूनाम् । तथापि ये तोषयितुं यतन्ते, ते मूर्ख मुख्याः प्रतिभान्त्यनाथाः ॥ भक्त्येकजीवे सति तोषितेऽन्ययः करोति कोपं खलु निन्दतीह । शात्वेति पूर्वोक्तविधि तथैव, चिन्ता च मुक्त्वाऽखिलजन्तुशान्तेः । निजात्मसिद्धि परिणामशुद्धि, कुर्वन्तु नित्यं स्वरसस्य पानम् । निम्वन्तु कुप्यन्तु नमन्तु कोपि तथापि धीरा न चलन्तु धर्मात् अर्थ इस संसार में कोई भी ऐसा जीव दिखाई नहीं पड़ सकता जो समस्त जीवोंको संतुष्ट करनेवाला हो । क्योंकि समस्त जीवोंको संतुष्ट करनेवाला कोई प्रबल हेतु नहीं है, तथापि जो जीव समस्त
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१ बनारस में अब भी महादेवका एक मंदिर फटे महादेवक नामसे प्रसिद्ध है |