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( शान्तिसुधासिन्धु )
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धारण कर लेते थे । अतएव प्रत्येक भव्यजीवको इन सब गुणोंको धारण कर, अपने आत्मामें शांति प्राप्त कर लेनी चाहिए । और फिर उस परम शांतिके द्वारा कर्मोको नष्ट कर, मोक्षकी प्राप्ति कर लेनी चाहिए।
प्रश्न- कुर्वतोपि तपोध्यान न स्याच्छान्तिः स कीदृशः ?
अर्थ- जो पुरुष ध्यान और तपश्चरण करता रहता है, फिरभी उसको शांतिकी प्राप्ति नहीं होती, उस मनुष्यको कैसा समझना चाहिए। उ. व्रतोपवासं च तपो जपं च स्वाध्यायमोनार्चनदानधर्मम् । पूजां प्रतिष्ठा विविधां सुयात्रां तत्त्वप्रचारं च परोपकारम् ॥ नित्यं प्रकुर्वन्नपि पुण्यकार्य यदि स्वचिते न दधाति शान्तिम् । स्यातहि तस्येति वृथैव जन्म व्यर्थ यथान्नं लवणेन हीनम् ॥
अर्थ-जो पुरुष व्रत वा उपवास करता है, तपश्चरण वा जप करता है, स्वाध्याय करता है, मौन धारण करता है, जिनपूजन करता है, दान करता है, धर्म धारण करता है, प्रतिष्ठा करता है, अनेक प्रकारको यात्राएं करता है, तत्त्वोंका प्रचार करता है और परोपकार करता है, इसप्रकार जो पुरुष प्रति दिन पुण्य कार्य करता है, फिरभी उसके हृदयम शांति प्राप्त नहीं होती। जिस प्रकार लवणके विना अन्न अरूचिकर लगता है, उसी प्रकारक उसका जन्मही व्यर्थ है, यह समझना चाहिए।
भावार्थ- ऊपरके इलोकमें यह बात अच्छी तरह बताई जा चुकी है, कि व्रत उपवास आदि पुण्य कार्य करनेसे आत्माको अत्यंत शांति प्राप्त होती है, तथापि जो पुरुष इन सब पुण्य कार्योको करता हुआभी अपने हृदय में शांति धारण नहीं करता, वह पुरुष वास्तव में इन पुण्य कार्योको नहीं करता, अथवा उसका मन-वचन-काय इन पुण्यकार्यों में नहीं लगता,। क्योंकि इन सब पुण्यकार्योंमें मनके लगनेपर शांतिकी प्राप्ती होना अनिवार्य है, यदि शांति प्राप्त नहीं होती है तो समझना चाहिए, कि उसका मन नहीं लगा है। मन लगाए बिना कोई काम सफल नहीं हो सकता, इसीलिए मन लगाए बिना ऐसे पुण्यकार्यों को करना, अपने जन्मको व्यर्थ खोना है । अतएव अपनी शक्तिके अनुमार