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( शान्तिसुधासिन्धु )
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ध्यान तपश्चरणकेद्वारा कोको नष्ट करता हुआ लब्धियोंको प्राप्त होता है, उस समय इंद्रभी उसके चरणोंमें मस्तक झुकाता है। फिर भला चितामणि, कल्पवृक्ष, धरणीन्द्र, चक्रवर्ती, कामधेन, भोगभूमि, और स्वर्गकी तो बातही क्या है ? यह अध्यात्मविद्या केवलज्ञानको प्राप्त करा देती है, और इस प्रकार अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतसुख और अनंतवीर्य इन चारों अनंतचतुष्टयोंको प्राप्त कराकर उस जीवको जगत वंद्य बनाकर, तीनों लोकोंके शिखरपर विराजमान कर देती है । अतएव प्रत्येक भव्यजीवको सब काम छोड़कर इस अध्यात्मविद्याका अध्ययन करना चाहिए । यहांपर इतना और समझ लेना चाहिए, कि अध्यात्मविद्याका अध्ययन करनेवाला पुरुष ज्यों-ज्यों अध्यात्मविद्याका अध्ययन करता जाता है, त्या-त्यों व्यवहारचारित्रकी वृद्धि करता जाता है । इसका कारण यह है कि, यह व्यवहारचारित्र अध्यात्म विद्याकाही फल है। व्यवहारचारित्रसेही गुणस्थानोंको वृद्धि होती है, और व्यवहारचारित्रसेही कर्माका नाश होता है । जहांपर इस व्यवहारचारित्रकी पूर्णता होती है, वहींपर निश्चय चारित्रकी पूर्णता होकर मोक्ष की प्राप्ति हो जाती हैं । इसलिए जो लोग अध्यात्मविद्याका अध्ययन करते हुए व्यवहारचारित्रका त्याग कर देते हैं, वे दोनों ओरसे भ्रष्ट होकर केवल पापोंकाही उपार्जन किया करते हैं । अतएव जिस विद्याकं पढ़नेमे व्यबहारचारित्र छूट जाय उसको अध्यात्मविद्या कभी नहीं कह सकते, जिस विद्याके अध्ययन करनेसे यह आत्मा व्यबहारचारित्र छोडकर अपने आत्मकल्याणसे ठगा जाय, उसे अध्यात्मविद्या कसे कह सकते हैं, उस तो फिर ठगविद्या कहना चाहिए, इसलिए जिस विद्याके अध्ययन करनेसे व्यवहारचारित्रकी वृद्धि और शुद्धि होती रहे उसीको अध्यात्मविद्या कहते हैं, और ऐसी अध्यात्मविद्यासेही समस्त सुखको सामग्री दामीके समान सदाकाल सामने खडी रहती है ।
प्रश्न - कौमूर्तकर्मणाऽमूर्ती जीवः सः बध्यते कथम् ?
अर्थ - भगवान् ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि जब यह जीव अमूर्त है तब, यह मूर्त काँसे किस प्रकार बंध जाता है ? उ. जीवो न सर्वथाऽमूर्तो रागद्वेषयुतो भुवि ।
यद्यमूर्तो भवेतहि बंधमोक्षविधिर्वृथा ।। ३११ ॥