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( शान्तिसुधासिन्धु )
साधुश्रावकभेदोपि तथा दानार्चनादिकम् । पुण्यपापादिभेदश्च न स्यात्तत्त्वादिचिन्तनम् ।। ३१२ ॥ स्वयं कर्म करोत्सात्मा भुंक्ते सन् तन्मयस्तदा । तद्विना घटते नैव कर्ताकर्मादिकारकम् ॥ ३१३ ।। ततश्च मन्यते यावद् बद्धो जीवोस्ति कर्मणा। तावन्मूतॊ भवेत्पश्चामूर्तश्च निरंजनः ॥ ३१४ ॥
अर्थ-- इस संसारमें जो रागद्वेष आदि विकारोंको धारण करनेवाला जीव है, वह सर्वथा अमूर्त नहीं है । यदि राग-द्वेष विशिष्ट जीवको अमूर्त माना जाय, तो फिर बंध बऔर मोक्षाको व्यवस्था व्यर्थ माननी पडेगी, मुनि और श्रावकका भेदभी व्यर्थ मानना पड़ेगा, दान-पूजा-व्रतउपवास आदिभी सन्त्र व्यर्थ मानने पडेंगे. पुण्य-पापका भेदभी व्यर्थ मानना पडेगा. और तत्वोंका चितवनभी व्यर्थ मानना पडेगा । यह आत्मा स्वयं कोको करता है, और तन्मय होकर उनके फलोंको भोगता है । यदि ऐसा न माना जायगा, तो कर्ता-कर्म आदि किया कारकोंका सम्बन्धभी कभी नहीं बन सकेगा। इसलिए ऐसा मानना चाहिए कि जबतक यह जीव कसे बंधा हुआ है, तबतक यह जीव मूर्त माना जाता है, और जब यह जीव अपने समस्त कर्मोको नष्ट कर देता है, तब यह जीव अमूर्त कहलाता है, और फिर वह कभीभी कर्मासे नहीं बंध सकता ।
भावार्थ – यदि यथार्थ दृष्टिसे देखा जाय तो आत्माका यथार्थ स्वरूप अमूर्त है, परंतु यह संसारी आत्मा अनादिकालसे सुवर्ण-पाषाणके समान विशिष्ट कर्मबंधन करता चला आ रहा है । जो आत्मा कर्मबंधन विशिष्ट होता है, बह व्यवहारनयसे मूर्त माना जाता है। जिस प्रकार सुवर्ण-पाषाणमें शुद्ध मुवर्ण होता है परंतु वह अनादिकालस पाषाण-सहित चला आ रहा है। जिस प्रकार उस सुवर्ण-पाषाणको अग्नि में तपाकर शुद्ध कर लेते हैं, उसी प्रकार वह अनादिकालसे कर्मसहित चला आ रहा आत्मा ध्यान तपश्चरणके द्वारा कर्मोको नष्ट कर, शुद्ध अमूर्त बन जाता है, तथा शुद्ध अमूर्त होनेपर वह फिर कभीभी कर्मबंधनमें नहीं पड़ता । इससे यह स्पष्ट सिद्ध हो जाता है कि जो आत्मा अमूर्त और शुद्ध होता है, वह फिर कभीभी कर्मबंधनोंसे बद्ध