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________________ { शान्तिसुधामिन्धु ) २१५ नहीं होता। इसका कारण यह है कि कोका बंधन राग, द्वेष, मोह, काम, आदि विकारोंसे होता है, तथा राग, द्वेष, आदि विकार कर्मोके उदयसे होते हैं । जब यह आत्मा अपने समस्त कर्मोको नष्ट कर देता है। तब न तो उसके कर्मोंका उदय हो सकता है, न राग द्वेष उत्पन्न हो सकता हैं. और न कर्मों का बंधन हो सकता है। इसलिए अमर्त आत्मा कभीभी कर्मबंधनवद्ध नहीं होता। यह निश्चित सिद्धांत है । परंतु यह संसारी आत्मा अनादिकालसे कर्मबंधनबद्ध चला आ रहा है, इसलिए व्यबहारनयसे मूर्त कहलाता है, ऐसा यह कथंचित् मूर्त आत्मा कर्मोंके बंधनोंसे बंधता रहता है। जो लोग इस आत्माको सर्वथा अमूर्त मानते हैं, वे भूल करते है । क्योंकि यदि मंसारी आत्माकोभी अमूर्त माना जायगा, तो फिर उसे मक्त जीवके समान शद्ध और राग-द्वेष रहित मानना पडेगा, क्योंकि यह निश्चित सिद्धांत है, कि जो जीव आत्मा सर्वथा अमूर्त होता है, वह शुद्ध और निर्दोष बा वीतरागही होता है, और ऐसा आत्मा फिर कर्मोसे कभी नहीं बंध सकता। इस प्रकार वह वीतराग, निर्दोष, और अत्यंत शुद्ध होता है, और मुक्त आत्माभी ऐसाही होता है, इसलिए वह सर्वथा अमूर्त आत्माही होता है, तथा मुक्त आत्माको फिर मुक्त होने की आवश्यकता नहीं होती। क्योंकि बंधा हुआ आत्माही मक्त हो सकता है, जो बंधा हुआ नहीं है, वह नो मुक्तही है। इस प्रकार विचार करनेसे यह अच्छी तरह सिद्ध हो जाता है, कि, यदि संसारी आत्माको सर्वथा अमत मान लिया जायगा तो, न तो कर्मबंधनकी व्यवस्था ठीक बन सकती है, और न मोक्ष होने की व्यवस्था ठीक बन सकती है, तथा जब बंध और मोक्षको व्यवस्थाही नहीं बन सकती, तो फिर मुनि और श्रावकोंका भेदभी नहीं बन सकता, न सामायिक, ध्यान, तपश्चरण वा दान, पूजन आदि व्यवस्था बन सकती है, न पुण्य-पापका भेद बन सकता है, और न तत्त्वोंका चितवन कर सकता है, क्योंकि कर्मबंधन और शरीर विशिष्ट आत्माही कर्मोंका बंध कर सकता है, वहीं मोक्षप्राप्तिके लिए अणुवत महावत धारण कर सकता है, वहीं आत्मा तत्त्वोंका चितवन कर सकता है, और वही पुण्य व पापका आम्रय वा संवर कर सकता है । कोसे बंधा हुआ शरीर विशिष्ट आत्माही कर्मोको करता है, और वह आत्मा उन
SR No.090414
Book TitleShantisudha Sindhu
Original Sutra AuthorKunthusagar Maharaj
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages365
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
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