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________________ (शान्तिसुवासिन्धु ) कर्मों के फलको भोगता है। इस प्रकार माननेसे कर्ता-कर्म आदि कारणोंका संबंध भी ठीक बंठ जाता है, यदि संसारी आत्मा को भी सर्वथा अमूर्त मान लिया जाता है, तो फिर अमूर्त आत्मा न तो कुछ कर सकता है, और न कर्मो का फल भोग सकता है। क्योंकि शरीरके द्वाराही कोई कार्य किया जाता है, और शरीरकेद्वारा कर्मोंका सुख-दुःखरूप फल भोगा जाता है, तथा शरीर विशिष्ट आत्मा कथंचित् मूर्तही होता है । इसलिए कथंचित् मूर्त संसारी आत्माही कमसे बंधता है, अमूर्त आत्मा कभी कमसे नहीं बंध सकता। यह निश्चित सिद्धांत है । प्रश्न- मोक्षाथिभिश्च कि कार्य सुखार्थं वद मे गुरो ? अर्थ - हे भगवन् ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि मोक्षकी इच्छा करनेवाले धव्यपुरुषों को अनंतसुख प्राप्त करनेके लिए क्या-क्या कार्य करना चाहिए २१६ उ. सुखात्मकं ज्ञानमयं पवित्रं मोक्ष प्रयातुं हृदि यश्च वांच्छेत् संसारमोहः प्रथमं च तेन त्याज्यस्तथा क्रोधरिपुः कुटुम्बः ॥ पश्चात्सदा चात्मनि चात्मने चात्मानं चिदानन्दमयं सुखार्थम् विलोकनं बोधनमेव कार्यं मूढक्रियां बाह्यविधि विहाय ॥ ३१६ अर्थ- जो मनुष्य अपने हृदय में अनंतसुखमय तथा अनंतज्ञानमय और अत्यन्त पवित्र ऐसे मोक्षस्थान में पहुंचना चाहता है, उसको सबसे पहले संसारके मोहका त्याग कर देना चाहिए. क्रोधरूपी शत्रुका त्याग कर देना चाहिए, और कुटुम्बका त्याग कर देना चाहिए। तदनंतर अनंतसुख प्राप्त करनेके लिए तथा अपने आत्माका कल्याण करनेके लिए अपनेही आत्मामें अपने चिदानन्दमय आत्माको देखना चाहिए, तथा अज्ञानी जीवोंके द्वारा होनेवाली क्रियाओं का त्याग कर, तथा समस्त बाह्य विधियोंका त्याग कर उसी चिदानंदमय आत्माका ज्ञान प्राप्त कर लेना चाहिए । 1 भावार्थ - इस संसारमें इस आत्माका सबसे प्रबल शत्रु मोहही है । इस मोहकेही कारण इस आत्माको नरक वा निगोद में जाना पड़ता है, तथा मोहकेही कारण समस्त पाप करने पडते हैं । जो शेठ लोग किसी अन्य के पुत्रको दलक लेते हैं, वे दत्तक लेने के अनंतरही उससे मोह
SR No.090414
Book TitleShantisudha Sindhu
Original Sutra AuthorKunthusagar Maharaj
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages365
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
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