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________________ (aitagarfong) भावार्थ - इस संसारमें शुद्ध आत्मा ही ग्रहण करने योग्य है ऊपर जितने गुण लिखे हैं वे सब शुद्ध आत्मामें प्राप्त हो सकते हैं । इसलिए शुद्ध आत्मा ही ग्रहण करने योग्य हो सकता है । वह शुद्ध आत्मा अमूर्त होता है इसलिए उसका ज्ञान इंद्रियोंमे नहीं हो सकता । उसका ज्ञान स्वसंवेदनसे होता है । स्वसंवेदन सम्यग्ज्ञानका अंश है और वह सम्यग्दर्शन के साथ प्रगट होता है । में शुद्ध चैतन्यस्वरूप हूँ, समस्त विकारोंसे रहित हूं और रत्नत्रयस्वरूप हूं इस प्रकारके आत्माके अनुभवको स्वसंवेदन कहते हैं। इसी स्वसंवेदनसे आत्माका शुद्धस्वरूप जाना जाता है और वही ग्रहण करने योग्य है । ५४ प्रश्न- स्वात्मायं साध्यते केनोपायेन वद मे गुरो ? अर्थ- गुरो ! अब कृपाकर यह कहिये कि यह शुद्ध आत्म किस उपाय से सिद्ध किया जाता है ? उत्तर चित्तावेगं भवबन्धबोजं, - संयम्य सन्तोषहरं कषायम् । चिन्हेन बुध्वेति चिदन्यवस्तु, स्वस्वस्वभावे हि यथास्थितं च ॥ ८२ ॥ स्वात्मात्मना चात्मनि चात्मने था, ऽऽत्मानं सवालोकन बोधनं यः । करोति भव्यश्च स एव शीघ्रः, स्वानन्दसाम्राज्यपदे प्रयाणम् ॥ ८३ ॥ अर्थ- जो महापुरुष संसारके कर्मबन्धके कारणभूत इन्द्रिय और मन वेगको रोक लेता है तथा सन्तोषगुणको नाश करनेवाले कषायों को दूर कर देता है और फिर अपने-अपने स्वभाव में स्थिर रहने वाले चैतन्यमय जीव पदार्थको तथा अन्य समस्त पदार्थोंको उनके भिन्न त्रिन्होंसे समझ लेता है । तदनन्तर जो भव्यस्वरूप अपना आत्मा अपने ही आत्मा में, अपने ही आत्माके द्वारा, अपने ही आत्मा के लिए, अपने ही आत्माको सदाकाल देखता और जानता है वही महापुरुष भव्यजीव शीघ्र ही अपने शुद्धात्मजन्य : अनन्त सुखरूपी साम्राज्यस्थान में जा बिराजमान होता है । : ८
SR No.090414
Book TitleShantisudha Sindhu
Original Sutra AuthorKunthusagar Maharaj
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages365
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
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