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( शान्तिसुधासिन्धु )
भावार्थ- यह जीब इंद्रियोंके विषयोंके वशीभूत होकर अनेक प्रकारके अशुभ कर्मोका बन्ध करता है । तथा कषायोंके निमित्तसे तीन कोका बंध करता है। इस संसार में इस जीवको डबानेवाले इंद्रियों के विषय और कषाय ही हैं । अतएक मोक्ष प्राप्त करनेवाले महापुरुषोंको सबसे पहले इन इन्द्रियोक विषयोंका सर्वथा त्याग कर देना चाहिए । तदनन्तर समस्त तत्त्वांका यथार्थ स्वरूप समझना चाहिये । तथा उनम जो हेय वा त्याग करने योग्य पदार्थ हैं उनका त्याग कर देना चाहिए, उनसे अपना ममत्व हटा लेना चाहिये । और उपादेय स्वरूप अपने शुद्ध आत्माको ग्रहणकर उसी में लीन होने का प्रयत्न करना चाहिये । तथा अन्त तक उसी शुद्ध आत्माका ध्यानकर मोक्ष प्राप्त कर लेना चाहिए। यही भव्य श्रावकका सबसे मुख्य कर्तव्य है । - प्रश्न- कीदृशोऽस्तीह चात्मायं गुरो मे वद तत्त्वत: ?
अर्थ- है भगवन् ! अन कृपाकर यह बतलाइये कि वास्तवमें आत्माको स्वरूप कैसा है ? उत्तर जाता वृष्टा जगत्साक्षी तत्त्वतो दोषदूरगः । : . स्वपरवस्तुनः स्वात्मा प्रदीपवत्प्रकाशकः ॥ ८४ ॥
___ अर्थ-- यदि वास्तवमें देखा जाय तो यह आत्मा समस्त पदार्थोंको जाननेवाला है, समस्त पदार्थोंको देखनेवाला है, तीनों लोकोंको प्रत्यक्ष देखने जाननेवाला है, रागादिक समस्त दोषोंसे रहित है और दीपकके समान अपने स्वरूपको तथा पर पदार्थोको प्रकाशित करनेवाला है । .:. ''भावार्थ- यह संसारी जीव कर्मोके अधीन हो रहा है, उन कर्मों के आधीन होनेसे ही यह जीव राग, द्वेष, मोह, अज्ञान आदि अनेक दोषोंसे दूषित हो रहा है। परंतु जब यह आत्मा उन कर्मीको नाश कर अपना शुद्ध स्वरूप प्रगट कर लेता है तब ये दोष भी सब नष्ट हो जाते हैं, तथा ज्ञानावरणकर्मके नाश होनेसे यह आत्मा अनंतशानी बन जाता है, और दर्शनावरण कर्मके अत्यन्त क्षय होनेसे अनंतदर्शन प्रगट हो जाता है, इसी प्रकार अन्य कर्मोंके नाश होनेसे मोहादिक सच दोष नष्ट हो जाते हैं। उस समय यह आत्मा समस्त पदार्थोका ज्ञाता हो जाता है, समस्त पदार्थोंका दृष्टा हो जाता है। तीनों लोकोंको प्रत्यक्ष करनेयाला हो