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________________ ५६ (शान्तिसुवासिन्धु ) जाता है, समस्त दोषोंसे रहित होता जाता है, और स्वपर प्रकाशक बन जाता है। जिस प्रकार दीपक अपने स्वरूपको भी प्रकाशित करता है और अन्य पदार्थो को भी प्रकाशित करता है, उसी प्रकार यह आत्मा भी अपने स्वरूपका भी ज्ञाता दृष्टा हो जाता है और अन्य समस्त पदार्थों का भी ज्ञाता दृष्टा हो जाता है। यही आत्माका शुद्ध स्वरूप है । प्रश्न- को ज्ञेयो ज्ञायकः कोयं दृष्टा दृश्यः प्रभो वद ? अर्थ - हे प्रभो ! अब यह बतलाइये कि इस संसार में ज्ञेय कौन है, जायक कौन है, दृष्टा कौन है और दृश्य वा देखने योग्य कौन है | उत्तर - ज्ञेयोपि ज्ञायकोप्यात्मा स्वापरबोधनात्सवा । दृष्टा वृश्यस्ततः खात्माऽन्यवस्तुव्यवहारतः ॥ ८५ ॥ अर्थ - यह आत्मा अपने स्वरूपको भी जानता है तथा अन्य समस्त पदार्थोंके स्वरूपको भी जानता है । इसलिए यही आत्मा ज्ञेय है: और यही आत्मा ज्ञायक हैं । इसीप्रकार यह आत्मा अपने स्वरूपको भी देखता है और अन्य पदार्थों के स्वरूपको भी देखता है, इसलिए यही आत्मा दृष्टा कहलाता है और यही आत्मा दृश्य वा देखने योग्य कहलाता है । आत्माके सिवाय अन्य पदार्थोंके लिये यह आत्मा व्यवहारदृष्टिसे ज्ञायक और दृष्टा ही कहलाता है । भावार्थ - यह आत्मा समस्त पदार्थोंको जानता है तथा देखता है इसलिए ज्ञाता दृष्टा तो है ही, इसमें तो किसी प्रकारका सन्देह ही नहीं है, परंतु यह आत्मा अपने ही आत्माके द्वारा देखा जाता है और अपने ही आत्माके द्वारा जाना जाता है, इसलिए यही आत्मा ज्ञेय और दृश्य भी माना जाता है । इसके सिवाय अन्य जितने पदार्थ हैं, वे सब ज्ञेय और दृश्य ही हैं, ज्ञायक और दृष्टा नहीं हैं । प्रश्न - सर्वदेवं च मुक्त्वा किं गृह्यते वद में जिन ? अर्थ - हे भगवन् ! अब कृपाकर यह बतलाइये कि भव्य श्रावक लोक अन्य समस्त देवोंको छोड़कर भगवान जिनेन्द्रदेवको ही क्यों ग्रहण करते हैं? उत्तर - त्यक्त्वा जिनं सर्वकलंकमुक्तं, सर्वोपि देवोखिलदोषधारो । १. 13
SR No.090414
Book TitleShantisudha Sindhu
Original Sutra AuthorKunthusagar Maharaj
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages365
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
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