SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 54
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( शान्तिसुधासिन्धु ) करता है फिर काययोगको छोडकर मनोयोग वा वचनयोगसे चितवन करने लगता है इसको योग संक्रमण कहते हैं । किसी पदार्थको एक शब्दसे चितवन करते करते दुसरे शब्दो चितवन करने लगता है फिर तीसरे शब्दसे चितवन करता है। इस प्रकार व्यंजन संक्रमण करता रहता है। इन सब संक्रमणोंको विचार कहते हैं । यह विचार पहले ही शुक्लध्यान में होता है आगे नहीं। इस प्रकारके इस शुक्लध्यानको धारण करनेवाला महापुरुष मोक्षमें हो जा विराजमान होता है । प्रश्न- ग्राह्यास्ति की शचात्मा बुध्यते कम हेतुना ? अर्थ- हे स्वामिन् ! अब यह बतलाइए कि इस जीवको अपना कसा आत्मा ग्रहण करना चाहिए और वह आत्मा किस प्रकार जाना जा सकता है ? उत्तर स्वागन्दधारी भवभोतिहारी, मायानिवारी मदनप्रहारी । स्वराज्यकारी स्वसुखप्रसारी। सम्पूर्णसाम्राज्यपदाकाधिरी ॥ ८०॥) (समस्तसंकल्पविकल्पवरी, वाद्यन्तमध्याविविदूरकारी। पूर्वोक्तधर्मेण युतश्चिदात्मा, प्रायः स्वसंवेदनतश्च गम्यः॥ ८१॥ (अर्थ- जो आत्मा अपने आत्मजन्म आनन्दको धारण करनेवाला है, संसारके जन्ममरणरूप भयको हरण करनेवाला है; मायाचारीसे सर्वथा दूर रहनेवाला है, कामदेवको नष्ट करनेवाला है अपने आत्माकी शुद्धतारूप स्वराज्यको धारण करनेवाला है, आत्मजन्य सुखको फैलानेवाला है, मोक्षरूप समस्त साम्राज्यके पदका अधिकारी है, जो संकल्पविकल्पोंसे रहित है और आदि मध्य अन्तसे रहित है, जी चैतन्यस्वरूप आत्मा इन ऊपर लिखे हुए धर्मोसे सुशोभित है वहीं शुद्ध आत्मा ग्रहण करने योग्य है ऐसा आत्मा अपने स्वसंवेदनसे जाता जाना है।
SR No.090414
Book TitleShantisudha Sindhu
Original Sutra AuthorKunthusagar Maharaj
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages365
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy