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( शान्तिमुप्रासि )
उत्पन्न होता है। आर्त्तध्यान और रौद्रध्यानका त्याग कर दे वह नरकगति वा तियंचगति में उत्पन्न नहीं हो सकता। इसलिए वह उनम स्वर्ग में ही उत्पन्न होता है ।
प्रश्न- कस्य ध्यानस्य कार्येण भो प्रयाति मानवः ?
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अर्थ - हे स्वामिन् ! अब पाकर यह बतलाइये कि यह मनुष्य किस ध्यानको करनेसे मोक्ष प्राप्त कर लेता है ?
उत्तर - शुक्लध्यानी व्रती धोमांश्चरमांगी दयानिधिः । गतस्पृहः सदानंदो मदमानमलोज्झितः ॥ ७८ ॥ निर्द्वन्द्वो निर्मदः शान्तः कृपाविधः शीलसागरः । मोक्षपुरी प्रयात्युच्चे: विश्वतत्त्वविशारदः ।। ७९ ॥
अर्थ -- जो पुरुष महाव्रतोंको धारण करता है, जो अत्यन्त बुद्धिमान हैं, चरमशरीर है. नानिधि है, सब प्रकारकी इच्छाओंसे रहित है, सदानन्द स्वरूप है, मद मान आदि विकारोंसे सर्वथा रहित है, सन प्रकार के संकल्प विकल्पोंसे रहित है, जो मद रहित है, अत्यंत शांत है, कृपाका सागर है, शीलसागर है, और समस्त तत्त्वोंका जानकर है ऐसा शुक्लध्यान करनेवाला महापुरुष मोक्ष नगर में जा बिराजमान होता है । भावार्थ - आत्मा के शुद्धस्वरूपका चिन्तवन करना शुक्लध्यान है । पृथक्त्ववितर्क, एकत्ववितर्क, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती और व्युपरतक्रियानिवृति ये चार उसके भेद हैं। इनमें से पहलेके दो शुक्लध्यान श्रुतलियोंके होते हैं, और अन्तके दोनों ध्यान केवली भगवान के होते हैं पृथक्त्ववितर्क तीनों योगों से होता है, एकत्ववितर्क किसी एक योगसे होता है. सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती काययोग से होता है और व्युपरतक्रियानिवृति किसी योग नहीं होता है अयोग अवस्थामं होता है । पृथक्त्ववितर्क के चितवनमें पदार्थोंका संक्रमण होता रहता है, अर्थात् एक पदार्थको छोड़कर दूसरे पदार्थका चितवन करने लगता है, फिर उसको छोडकर तीसरेका चितवन करता है । इसी प्रकार पदार्थक चितवनका संक्रमण होता रहता है। इसके सिवाय योग और शब्दों का संक्रमण भी होता है। मनोयोग से चितवन करते करते वचन योगसे चितवन करने लगता है, वचन योगको छोडकर काययोगसे चितवन
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