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(शान्तिसुधासिन्धु)
उत्तर - आर्तरौद्रं परित्यज्य संसारक्लेशकारणम् ।
आज्ञापायवियाकादिधर्मध्यानपरायणः ।। ७६ ।। व्रताचारसमापन्नः सम्यक्त्वरत्नभषितः। स्वर्मोक्षमार्गसंलग्नः स्वर्ग श्रेष्ठं प्रयाति सः ।। ७७ ॥ अर्थ – जो पुरुष दुःखमय संसारके क्लेशोंके कारण ऐसे आर्तध्यान और रौद्रध्यान दोनों अशुभ ध्यानांका त्याग कर आज्ञाविचय, अपायवित्रय विपाकविनय और संस्थानविचय इन चारों धर्म्यध्यानौंको धारण करता है, जो व्रत सदाचार आदिके पालन करने में लीन रहता है, सम्यग्दर्शन रूपी रत्नसे सुशोभित रहता है और स्वगं वा मोक्षके मार्ग मे सदाकाल लीन रहता है वह पुरुष स्वर्गम उत्पन्न होता है।
भावार्थ -- ऊपर जिन आनध्यान और रौद्रध्यानका वर्णन किया है वे दोनों ध्यान जन्म मरणरूप संसारके समस्त दुःखोंके कारण है । धर्मध्यान परंपरासे मोक्षका कारण है और शुक्लध्यान साक्षात् मोक्षका कारण है । धर्मसे बा आत्माके गणोंकि संलग्नतासे जो ध्यान उत्पन्न होता है उसको धर्मध्यान कहते हैं। धर्मध्यानके चार भेद हैं। भगवान जिनेन्द्रदेवकी आज्ञाको मानना और उस आज्ञाका सर्वत्र प्रचार करना आज्ञात्रिचय नामका धर्मध्यान कहलाता है। इस संसारमें मिथ्यादृष्टियोंका मिथ्यात्व किस प्रकार दूर हो, वा दुःखी जीवोंका दुःख किस प्रकार दूर हो. इस प्रकार चितवन करना अपायबिचय धर्मध्यान काहा जाता है । अपने ऊपर दुःख आनेपर उसको कर्मोंका फल मानना और उसे समतापूर्वक सहन करना विपाकविचय धर्मध्यान कहलाता है। तथा लोकका स्वरूप अथवा लोकमें भरे हए समस्त तत्त्वोंका स्वरूप चितवन करना संस्थानविचय नामका धर्मध्यान कहलाता है । इन चारों ध्यानोंमें किसी प्रकारका पाप उत्पन्न नहीं होता और ये चारो ध्यान आत्माके स्वभावसे उत्पन्न होते हैं । इसलिये इनको धर्मध्यान कहते हैं।
धर्मध्यानको धारण करनेवाला पुरुष भी कभी अन्याय नहीं करता, बह व्रतोंको पालन करता रहता है, सदाचारका पालन करता रहता है । सम्यग्दर्शनसे सुशोभित रहता है और इसीलिए वह स्वर्ग वा मोक्षके मार्गमें लगा रहता है । ऐसा पुरुष उत्तम स्वर्गही