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( शान्तिसुधा सिन्धु )
धर्मपुरुषार्थं पूर्वक न होनेके कारण पुरुषार्थ नहीं कहला सकते । इसके सिवाय एक बात यह भी है कि इन सब पुरुषार्थों में मोक्ष प्राप्त करनेका ध्येय दिलमान रहता है। धर्म सेवन करना परंपरा मोक्षका कारण है ही, तथा सम्यग्दृष्टी पुरुष मोक्षकी अभिलाषा करता हुआ ही धर्मका सेवन करता है । तथा धन कमाता है वह भी मोक्ष प्राप्त करनेके लिए मुख्यतया धर्मसेवन में ही लगाता है। इसलिए वह उस अर्थ पुरुषार्थका भी मोक्षकी सिद्धिका साधन समझता है और इसीलिए वह अन्याय वा अनीतिपूर्वक धन नहीं कमाता, न्याय और नीति मार्गसे ही धन कमाता है । इसी प्रकार सम्यग्दृष्टी पुरुष धार्मिक संतान उत्पन्न करने के लिए काम पुरुषार्थका सेवन करता है । धार्मिक संतान उत्पन्न होनेसे ही धर्म को सत्ता कायम रह सकती है और मोक्षमार्ग चल सकता है । यदि संतान श्रमिक न हो तो धर्म और मोक्षमार्गका लोप ही हो जायगा । इसलिए सम्यग्दृष्टी पुरुष धर्मवृद्धि के अभिप्रायमे तथा मोक्षमार्ग की स्थिति सदाकाल बनी रहने के लिए ही कामपुषार्थका सेवन करता है और इसीलिए अन्त में वह सबका त्याग कर मोक्षमार्ग में लग जाता है । मिथ्यादृष्टि पुरुष धन कमाने में या कामसेवन करने में धर्मका वा मोक्षमार्गका कुछ ध्यान नहीं रखता । इसलिए उसके ये दोनों काम पुरुषार्थ नहीं कहलाते | पुरुष शब्दका अर्थ आत्मा है और अर्थ का अर्थ प्रयोजन है । जिसमें आत्माका प्रयोजन सिद्ध हो आत्मा का कल्याण हो वही पुरुषार्थ कहलाता है । मिथ्यादृष्टी पुरुष आत्माके स्वरूपको ही नहीं समझता है । इसलिए वह उसके कल्याणकी ओर कभी नहीं झुकता । इसलिए ही वह किसी पुरुषार्थ का सेवन नहीं कर सकता । सम्यग्दृष्टी ही पुरुषार्थो का सेवन कर सकता है ।
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इसी प्रकार स्त्रियां भी न तो धन कमा सकती हैं और न कामका फल प्राप्त कर सकती है । कामका फल संतान है वह पिता की कहलाती है । इसलिए धर्म अर्थ काम मोक्ष इन चारों पुरुषार्थोंको पुरुष ही प्राप्त कर सकता है, स्त्रियां नहीं ।
प्रश्न-- धर्मध्यानी नरो याति कीदृशी वद मे गतिम् ?
अर्थ - हे स्वामिन् ! अब यह बतलाइए कि धर्मध्यान करनेवाला मनुष्य कैसी गतिको प्राप्त होता है ?