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( शान्तिसुधासिन्धु )
भावार्थ- ऋत शब्दका अर्थ दुःख है । जो ध्यान किसी दुःखसे होता है उसको आर्तध्यान कहते हैं। उस आर्तध्यानके चार भेद हैं किसी इष्ट पदार्थ के वियोग होनेपर उसके संयोगके लिए बार बार चितवन करना पहला आर्तध्यान है । किमी अनिष्टक संयोग होने पर उसके वियोगके लिए बार बार चितवन करना दुसरा आध्यान है । किमी गेगके होनेपर उसके दूर करने के लिए बार बार चितादन करना तीसग आर्तध्यान है । और आगामी काल के लिए वा आगामो जन्मके लिए भोगापभोगोंकी इच्छा करना चौथा आनध्यान है । ये चारों आर्तध्यान तिर्यंच गतिके कारण हैं । गो चारों आतध्यान मुख्यतासे मिथ्यादृष्टियोंके होते हैं तथा चौथ पांचवें गणस्थान में सभ्यग्दृष्टीक भी होते हैं । छठे मणस्थान में भी किसी मनिने ये आतध्यान होते है। परन्तु निदान नामका चौथा आतध्यान मनियोंके नहीं होता । यदि कोई मनि चोथा आर्तध्यान करता है तो उस समय उसका छठा गुणस्थान छूट जाता है । छठ गणस्थानमें वा चौथे पांचवें गणस्थान होनेवाले आतध्यान अत्यन्त मन्द रीतिसे होत है इसी लिए व नियंचगतिक कारण नहीं होते । इसका भी कारण यह है कि सम्यग्दर्शनके प्रभावसे सम्यग्दृष्टी पुरुष अपने आत्माके स्वरूपको समझता है इसीलिए किसी भी प्रकार इष्ट वियोग वा अनिष्ट संयोग होनेपर वह अपने आत्मामें तीन संक्लेश परिणाम नहीं करता । वह सब प्रकारके दुःखोंको कर्मोंका फल समझता है । इसीलिए वह तीबसे तीव दुःख आने पर भी परिणामोम समता धारण करता है। इसीलिए उसके आर्तध्यान में तीव्रता नहीं हो सकती। उस आर्तध्यानमें मन्दता ही रहती है। इसीलिए वह आर्तध्यान तिर्यंच गतिका वा अन्य नीच गतिका कारण नहीं होता। यही कारण है कि आतध्यान करनेवाला सम्यग्दृष्टी पुरुष तिर्यंच गति वा अन्य नीच गतिमें उत्पन्न नहीं होता। यहांपर इतना और समझ लेना चाहिए कि धर्म अर्थ काम और मोक्ष ये चार पुरुषार्थ है। इन चारों पृश्यार्थों का पालन सम्यग्दृष्टी ही कर सकता है । इसका भी कारण यह है कि ये सब पुरुषार्थ अनुक्रमसे पालन किए जाते हैं। धर्म पुरुषार्थ के साथ-साथ जो अर्थ पुरुषार्थ वा काम पुरुषार्थ कहलाता है । विना धर्मपुरुषार्थको सेवन किए अर्थ पुरुषार्थ और काम पुरुषार्थ कभी पुरुषार्थ नहीं कहलाते हैं । यों तो सभी संसारी जीव धन कमाते हैं और कामभोगोंका सेवन करते हैं परन्तु वे दोनों पुरुषार्थ