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( शान्तिसुधासिन्धु )
होता है और कभी-कभी धर्मकार्य के लिए भी होता है। जब कोई दुष्ट पुरुष किसी धर्म कार्यमें विघ्न करना चाहता है तब उस विघ्नको दूर करनेके लिए बह सरलसे सरल उपाय करता है । यदि किसी सरल उपायसे वह विघ्न दूर नहीं होता तो उस समय उसको रौद्रघ्यान हो सकता है। जिनालयोंपर आक्रमण करनेवालोंका निग्रह किया ही जाता है । पूजा प्रतिष्ठा रथोत्सव आदि प्रभावनाके अंगोंमें विघ्न करनेवालोंका भी निग्रह किया ही जाता है। इन सब कामोंमें रौद्रध्यान हो सकता है । परंतु वह अत्यंत मंदरूंप होता है. साथमें दयारूप परिणाम भी होते है इस लिए वह रौद्रध्यान नरकका कारण कभी नहीं होता।
प्रश्न- आर्तध्यानी जनो याति तिर्यग्गत्यादिकं न बा ?
अर्थ- हे स्वामिन् ! अब यह बतलानेकी कृपा कीजिए कि आतध्यान करनेवाला पुरुष तिर्यंचगति वा अन्य नीच गतियोंमे जाता है वा नहीं ? उत्तर - धर्मार्थकाममोक्षादिपुरुषार्थक्रियोज्झितः ।
तिर्यग्गति समायाति नातध्यानी ह्यदर्शनः ।। ७३ ॥ क्वचिदिष्टवियोगाचार्तध्यानधारकोपि को। धर्मार्थकाममोक्षादिपुरुषार्थसमन्वितः ।। ७४ ॥ दीनजन्तुष्यथाहर्ता जिनधर्मप्रभावकः ।
याति सम्यक्त्वयुक्तो न तिर्यग्गत्यादिकं नरः ॥ ७५ ॥
अर्थ- जो पुरुष धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चारों पुरुषार्थीका पालन नहीं करता ऐसा मिथ्यादृष्टी आर्तध्यानी पुरुष तिर्यग्गतिको अवश्य प्राप्त होता है। परन्तु जो पुरुष धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चारों पुरुषार्थीका पालन करता है, दीन हीन जीवोंके दुःखोंको दूर करता रहता है, जिनधर्मकी प्रभावना करनेमें सदा तत्पर रहता है और जो सम्यग्दर्शनसे विभूषित होता है वह मनुष्य किसी समय इण्ट वियोग वा अनिष्ट संयोगसे उत्पन्न होनेवाले आर्तध्यानको धारण करता है तो भी वह तिर्यंच गतिमें वा अन्य किसी नीच गति में नहीं जाता।