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{ शान्तिसुधासिन्धु )
आकाश आदि पंचभूतोंके विकारसे सर्वथा भिन्न है। अथवा पंचभूतस्वरूप शरीरमेभी सर्वथा भिन्न है और उसका ज्ञान स्वसंवेदनसे होता है ।
भावार्थ- इस जीवके साथ अनादिकालसे कर्मोका सम्बन्ध लगा रहा है। इन कर्मो के निमित्तसेही यह जीव अनादिकालमें अराद्ध अवस्था धारण कर रहा है. और किसी न किसी शरीरमें रह रहा है । उन काँके उदयसेही इस जीवमें राग, द्वेष, मोह आदि विकार होता है । उन मोहादिक विकारोंके कारणही यह जीव जिस शरीरम रहता है, उमीको अपना वा अपने आत्माका स्वरूप मान लेता है, इसलिए वह शरीर सुखी होनेपर मैं सूखी हं, ऐसा मान लेता है, शरीर दुःखी होनेपर में दुखी हूं. ऐलान लत, पारी में कोई रोग होनेपर, में रोगी है ऐसा मान लेता है। शरीर नीरोग होनेपर मैं नीरोग ऐमा मान लेता है । इसप्रकार बह शरीरको अवस्थाको अपनी अवस्था मान लेता है, कभी-कभी वह आत्माके विकारोंकोभी अपनी अवस्था वा अपना स्वभाव मान लेता है, तथा इस कारण वह में सज्जन हूं, मैं दुःष्ट ह, में रोगी हूँ. मैं देषी हं, इसप्रकार अपने विकारोंकोही अपना स्वरूप मान लेता है, परंतु यह सब मानना उसका अज्ञान है, तथा इस अज्ञानकेही कारण यह जीव इस संसारमें परिभ्रमण करता आ रहा है। जब यह जीव अपने कर्मोके उदय मंद होनेपर तथा किमी वीतराग निग्रंथ गुरुका समागम होनेपर, अपने आत्मा स्वरूपको समझनेका प्रयत्न करता है, और काललब्धिके अनुसार दर्शन मोहनीय कर्मका क्षयोपशमादिक हो जाता है, तब जिस प्रकार बादलका थोडा भाग हट जानेपर सूर्यकी एक दो किरणेही संसारका समस्त अंधकार दूरकर पदार्थोके यथार्थ स्वरूपको प्रकाशित कर देती हैं, उस प्रकार दर्शनमोहनीय कर्मके हट जानेसे आत्मासेही एक प्रकारका प्रकाश उत्पन्न होता है, इस प्रकाशको सम्यग्दर्शन कहते हैं । इस सम्यग्दर्शनरूप प्रकाशके प्रगट होतेही यह आत्मा, अपने आत्माका दर्शन करने लगता है, और उस समय स्वपरभेदविज्ञान प्रगट हो जाता है, और फिर यह आत्मा अपने आत्माके स्वरूको पहचानने लगता है । उस समय वह परपदार्थोंकों हेय समझने लगता है, तथा शरीर और राग-द्वेष आदि विकारोंकोभी परपदार्थ समझकर उनका त्याग कर देता हैं । इसप्रकार